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विक्रम
द्वार है, किन्तु ऐसा सम्भव न हो तो कम से कम स्थूल प्राणियों या त्रसकाय की हिंसा से अवश्य बचना चाहिए। निशीथ-पूर्ण गाथा में तो निर्देश है कि प्राचार्य पर आक्रमण करनेवाले, साध्वी के साथ बलात्कार करने वाले तथा सिंह सरीखे घातक प्राणियों की हिंसा करके संघ की रक्षा करना चाहिए।
उपर्युक्त चर्चा का प्राशय एक ओर तो जैन आचार मीमांसा द्वारा हिंसा के विभिन्न रूपों का उद्घाटन करना था तो दूसरी ओर यह भी प्रकट करना था कि जैन धर्म भारतीय समाज में सांस्कृतिक प्रगति का बड़ा ही उज्ज्वल पृष्ठ है। जैन-दर्शन निरपेक्ष तत्वों में विश्वास नहीं करता। परमसत्ता के सम्बन्ध में अध्ययन-मनन को व्यर्थ समझता है । इनका विश्वास तो सापेक्षिक सत्यों में है। वस्तु अनेक धर्मात्मक होती है और किसी भी मनुष्य के स्वरूप ज्ञान के लिए उसके देश, काल, जाति, जन्म, समाज इत्यादि का ज्ञान होना आवश्यक है। प्रत्येक वस्तु में नित्यतत्व भी है तथा अनित्य भी। उत्पादव्यय प्रौव्य, प्रत्येक वस्तु के अनिवार्य रूप हैं। जन्म-मरण तथा नित्यजीवन एक ही मनुष्य के धर्म हैं। ऐसा सापेक्षवादी दर्शन निश्चित रूप से अहिंसा धर्म की क्रमिक प्रगति में विश्वास करेगा। समाज के सभी मनुष्य एक दम सम्पूर्ण रूप से अहिंतक नहीं बन सकते, लेकिन अहिंसा के क्षेत्र में अणुव्रत या महाव्रत से उत्तरोत्तर प्रगति करने की सम्भावना को स्वीकार करना साँस्कृतिक प्रगति में विश्वास प्रकट करना है। मुक्त जीवात्मा या तीर्थंकर या अरिहंत दुख से कराहते हुए मनुष्य के लिए एक आशीर्वाद सिद्ध होता है ।
प्रश्न व्याकरण सूत्र में हिंसा अहिंसा पर विस्तृत विचार किया गया है। इसके अनुसार हिंसा आस्रवद्वार है। हिंसा तीस प्रकार की गिनाई है, जब कि अहिंसा को संवर द्वार या मुक्तिद्वार कहा गया है। अहिंसा भी साठ प्रकार की बताई गई है। निर्वाण, निर्वृत्ति, शान्ति, विरति इत्यादि को भी अहिंसा के अन्तर्गत गिनाया गया है। हिंसा, अहिंसा के ये प्रकार इतने महत्वपूर्ण नहीं, जितना कि यह कथन कि हिंसा व अहिंसा प्रथम आस्रव एवम् संवर-द्वार है। सत्य, बह्मचर्य, अस्तेय एवम् अपरिग्रह क्रमशः दूसरे से पांचवें संवर-द्वार हैं। इसका प्राशय यह है कि अहिंसा प्रमुख धर्म है, जिससे कि सत्य इत्यादि विकसित होते हैं। अब्रह्मचारी तथा परिग्रही व्यक्ति दूसरों को कष्ट देगा, इसका प्राशय है हिंसक होगा। अतः किसी व्यक्ति का पूर्ण रूपेण अहिंसक हो जाने का आशय ही यह है कि उसमें अन्य धर्म अपने आप क्रमशः विकसित होते चलते हैं। इसी के साथ दया, परोपकार, दान, सेवा, इत्यादि गुण भी अहिंसा की साधना के साथ प्रारम्भ हो जाते हैं । अनेकांत का सिद्धांत भी अहिंसा दृप्टि का ही एक आनुभविक पक्ष है। अहिंसा को वैश्विक स्तर पर स्वीकृत करने के लिए महावीर का मार्ग ही अपनाना होगा। परन्तु यह भी इतना ही सही है कि सामाजिक प्रगति के साथ ही अहिंसा की साधना का विकास होगा। इस साँस्कृतिक मूल्य की गहराई एवम् व्यापकता ऐतिहासिक आवश्यकता है ।
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