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________________ हिंसा प्रकृति है अहिंसा संस्कृति है नहीं रह सकता। श्रमण संस्कृति में और विशेषकर जैन धर्म में एक बहुत बड़ा प्रयोग हुअा है, कि जन साधारण भी शुद्ध जीवन बिताकर महान् आत्मा बन सकता है । मानवता को एक विश्वास दिया है कि देवताओं की अपेक्षा मनुष्य श्रेष्ठ है और जो मनुष्य अपनी अन्तर यात्रा प्रारम्भ कर निग्रंथी बनजाता है, वह महावीर बनने की पात्रता रखता है। इस पात्रता को प्राप्त करने के लिए यह ग्रावश्यक नहीं कि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए किसी प्रकार की हिंसा की जाये। परलोक के देवता या कोई ईश्वर समाज को सुखी नहीं बना सकता। मनुष्य को मनुष्य हो सुखी बना सकता है और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अहिंसक जीवन बिताना प्रत्येक के लिए परम धर्म हो जाता है। अहिंसा को सामाजिक मूल्य मान लेने पर हिंसा व अहिंसा शब्दों के विरोध का प्रश्न नहीं रह जाता। क्योंकि अहिंसा अपने आप में समर्थ शब्द है तथा अहिंसा में मा हिंस्यात् के साथ-साथ सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, दान, दया, सेवा इत्यादि अनेक मूल्य जुड़े हुए हैं। जीव-सुख यदि हमारे अहिंसक व्यवहार का उद्देश्य है तो उपर्युक्त सभी मूल्य अहिंसा के अन्तर्गत आ जाते हैं। हिंसा व अहिंसा को साथ-साथ रखना और उनमें विरोध देखना या एक दूसरे को प्रभाव मूलक समझना उचित नहीं है। हिंसा मनुष्य या अन्य प्राणियों की प्रकृति है। जैसे-जैसे सामाजिक सम्बन्ध दृढ़ होते गए संस्कृति का विकास होता गया। यहां तक कि मनुष्येतर प्राणियों में भी अपनी ही प्रात्मा के दर्शन के साथ अहिंसा के क्षेत्र में प्राणियों की रक्षा भी शामिल करली गई है। जैन-दर्शन तो पशुहिंसा में धार्मिक भाव या उपयोगिता के भाव को त्याग कर षटकाय जैसे पृथ्वीकाय, अष्काय, अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और सकाय की भी हिंसा न करने की बात कहता है। अतः यदि हिंसा प्रकृति है तो अहिंसा संस्कृति है। तत्वार्थ सूत्र १३ अध्याय ७ में हिंसा की परिभाषा है, "प्रमत्त योगात् प्राण व्यापरोपणं हिंसा।" इसकी व्याख्या करते हुए टीकाकारों ने कहा है कि प्रमाद या कषाय ४ (क्रोध, लोभ, माया, मान) योगात् ३ (मन, वचन, कर्म) करण ३ (कृत, कारिता, अनुमोदित) के सम्मिश्रण से १०८ प्रकार की हिंसा होती है, जिन्हें की मोटे रूप से द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा में विभक्त किया जा सकता है। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि पूर्णरूप से अहिंसक होना तो केवल तीर्थकर के ही बस की बात है, यहां तक कि उपसर्ग केवली, अतंकृत केवली, सामान्य केवली तथा सातिशय केवली को भी अहिंसक बने रहने की चेतना बनाये रखनी पड़ती है। केवल पंच कल्याणिक, तीन कल्याणिक या दो कल्याणिक तीर्थकर ही स्वभाव से अहिंसक बन जाते हैं । जैन धर्म व्यावहारिक जीवन की उपेक्षा नहीं करता। क्योंकि इसमें श्रमण तथा श्रावक के कर्तव्यों में भेद किया है। श्रावक प्रारम्भी (चौके चूल्हे में होनेवाली हिंसा) उद्योगी हिंसा (खेतीबाड़ी) तथा विरोधी हिंसा (अत्याचारियों के आक्रमण का विरोध) से बच नहीं सकता। इस कारण श्रमण तथा श्राविक दोनों का सम्पूर्ण जीवन उनकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार पूर्णत: या आंशिक रूप से इसी सिद्धांत से नियंत्रित होता है। षटकाय की हिंसा से बचना कर्तव्य है क्योंकि हिंसा तो किसी रूप में भी हो मानव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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