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________________ ११. विक्रम विरोध के विषय में देख चुके हैं। न ही अहिंसा को हिंसा का अत्यंताभाव बताकर संस्कृति की व्याख्या की जा सकती है। इसी सन्दर्भ में हमारे वर्तमान विचारकों में अग्रणी प्राचार्य रजनीश के विचारों का उल्लेख करना लाभदायक होगा। उनके कथन (महावीर मेरी दृष्टि में, मोतीलाल बनारसीदास १९७१) निम्नलिखित है "अहिंसा शब्द बिलकुल नकारात्मक है, जो हिंसा नहीं है वह अहिंसा है।" "हिंसा व अहिंसा विरोधी नहीं हैं, प्रकाश और अंधकार विरोधी नहीं हैं - पृष्ठ ७४३" "हिंसा चली जायगी, जो शेष रह जायगा वह अहिंसा है-पृष्ठ ७५३" "अहिंसा हिंसा का उल्टा नहीं, अहिंसा हिंसा का अभाव है" "हिंसा के न होने पर जो स्थिति रह जाती है, उसका नाम अहिंसा है, वह बिदाई है हिंसा की-पृष्ठ ५१५" पृष्००९ इन उद्धरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचार्यजी अहिंसा को नकारात्मक या प्रभावात्मक मानते हैं जिसमें हिंसा का अत्यन्त प्रभाव है। लेकिन अहिंसा शब्द साँस्कृतिक गुणार्थ में इतना विचित्र हो गया है कि अहिंसा की कल्पना बिना हिंसा पर विजय पाये करना असम्भव लगता है। अहिंसा शब्द न केवल नकारात्मक या प्रभावात्मक है, वरन् सकारात्मक भी है। अहिंसा को केवल अभावात्मक मानना और फिर उसे अनुभव (अहिंसा अनुभव है आचरण नहीं-पृ ७४२) कहने की हिम्मत करने का प्राशय हमें तुलसीदास की उस चुनौती का सामना करना होगा जिसमें उनने कहा है कि “निर्गुण कहे सगुण बिन सौ गुरु तुलसीदास ।” हिंसा व अहिंसा जगत-ब्रह्म, सगुण-निर्गुण, अंधकार प्रकाश, इदम्-अद: के समान वेदांतिक पारिभाषिक शब्द नहीं हैं जिनकी व्याख्या ब्रह्म-ज्ञान के सहारे की जा सके। रजनीशजी की अहिंसा की व्याख्या निर्गुणी या वेदांती व्याख्या है। यह उनके इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि "जो परम की अनुभूतियाँ हैं, वे प्रभाव की अनुभूतियाँ हैं" (पृष्ठ ५१६) । "अहिंसा का पूर्ण अनुभव परमात्मा का अनुभव है" (पृष्ठ ७५४) । इस प्रकार के कथनों से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यदि अहिंसा शब्द के स्थान पर ब्रह्म शब्द रख दिया जाय तो आचार्य जी के कथन में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आएगा। अत: अहिंसा को हिंसा का प्रभाव या अत्यंताभाव नहीं कहा जा सकता। अभी तक की चर्चा से यह स्पष्ट हो गया है कि हिंसा और अहिंसा । न तो विपरीत न ही व्याघाती विरोध सम्भव है। इसी प्रकार न्याय की शब्दावली में हिंसा और अहिंसा में न तो अन्योन्याभाव है न अत्यंताभाव और रजनीशजी की व्याख्या में तो अहिंसा का वेदान्तीकरण कर दिया गया है। ऐसी स्थिति में इस पर विचार करना होगा कि अहिंसा से वास्तव में क्या तात्पर्य लेना समीचीन होगा। वास्तव में अहिंसा सामाजिक मूल्य है और सामाजिक विकास के साथ मूल्यों में परिवर्तन व परिवर्धन होता रहा है। अहिंसा सभी भारतीय धर्मों में तथा विदेशी धर्मों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। कोई भी धर्म मानव हिंसा का समर्थन करके जीवित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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