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हिंसा प्रकृति है अहिंसा संस्कृति है
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सव्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता न हंतव्या" इस आधार पर यह कहने में कोई प्रति नहीं है कि भारतीय संस्कृति में " मा हिंस्यात् सर्वभूतानि” का उद्देश्य किसी न किसी प्रकार अभिव्यक्त होता रहा है । मन, वचन एवम् कर्म से सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा भाव अपनाने से सम्पूर्ण समाज सुखी हो सकता है । प्रहिंसक जीवन शुद्ध जीवन है ।
साधारणतया देखने पर विदित होता है कि हिंसा और अहिंसा विरोधी शब्द हैं जो हिंसा नहीं है वह अहिंसा है । यहाँ हम तार्किक दृष्टिकोण से इन शब्दों के सम्बन्ध में विचार करना आवश्यक समझते हैं, क्योकि जब तक शब्दों के गुणार्थ को ठीक न समझा जाएगा, संस्कृति या उसके योगदान की भी स्पष्ट व्याख्या नहीं हो सकेगी । पाश्चात्य तर्कबुद्धि के अनुसार दो पदों में विरोध दो प्रकार का है । एक विपरीत (Contrary) है जैसे श्वेत व श्याम का विरोध । श्वेत व श्याम रंग के ही उपरंग हैं । परन्तु श्वेत श्याम नहीं है न श्याम श्वेत । यह विरोध एक अजीब प्रकार का है, क्योंकि दोनों रंग हैं, जिनके सिवाय भी अनेक रंग हैं तथा श्वेत व श्याम में अंश का ही भेद है, एक सीमा श्वेत है, तो अंशों की स्केल पर दूसरी सीमा श्याम की है । सकता है कि कभी अंशभेद से श्याम श्वेत हो सकता है और श्वेत श्याम । इस परिप्रेक्ष्य में यह कहना कि हिंसा व अहिंसा में विपरीत विरोध है, क्योंकि हिंसा का नकारात्मक पक्ष अहिंसा है और जो अहिंसा नहीं है वह हिंसा है, उचित नहीं है । ऐसे वर्णनों को तर्कशास्त्र में मूल्यहीन मानते हैं, क्योंकि उनसे कोई अर्थ स्पष्ट नहीं होता । हिंसा व अहिंसा का इस प्रकार विपरीत (विरोध) बताना मूल्यहीन है, क्योंकि दोनों में श्वेत व श्याम की एक जाति रंग के समान कोई एक व्यापक व स्त्वर्थ या गुरणार्थ नहीं है ।
यह भी कहा जा
दूसरे प्रकार का विरोध व्याघाती (Contradictory ) है जैसे श्वेत और अश्वेत, श्याम श्रौर - श्याम पदों का विरोध | इस व्याघाती विरोध की विशेषता यह है कि इसमें श्वेत या श्याम का पूरा विषय क्षेत्र इन पदों में समा गया है । अ- श्वेत में काला, नीला, पीला इत्यादि वे सभी रंग समाविष्ट हो जाते हैं जो श्वेत नहीं हैं । श्वेत एवम् प्र-श्वेत ये दोनों पद मिलकर रंगों का पूरा क्षेत्र समा लेते हैं कोई भी रंग इनसे बाहर नहीं छूटता । क्या हिंसा व अ-हिंसा में इस प्रकार का व्याघाती विरोध कहना उचित होगा ? क्या अहिंसा में हिंसा के व्यक्तिरिक्त सब व्यवहार आजाते हैं । सरसरी निगाह से देखने पर यह भ्रम श्रवश्य उत्पन्न होता है कि चूंकि अहिंसा में जीवन रक्षा के साथ दया, परोपकार, सेवा इत्यादि भी शामिल हैं, इसलिए इस प्रकार का व्याघाती विरोध सत्य प्रतीत होता है । परन्तु यह श्रसत्य इस कारण है कि हिंसा और अहिंसा पद एक ही विषय क्षेत्र या व्यवहार पक्ष के नहीं हैं । दोनों पद भिन्न-भिन्न विषय क्षेत्र के हैं । इस कारण इस प्रकार का निष्कर्ष उचित नहीं है । अतः यह कहना उचित ही है कि हिंसा और अहिंसा में सामान्यकुछ भी रही हो, परन्तु इनमें न तो विपरीत विरोध न ही व्याघाती विरोध का सम्बन्ध हो सकता है ।
भारतीय दृष्टिकोण से यदि हम अहिंसा को प्रभावपरक पद माने तो यह तो निश्चय है कि हिंसा व अहिंसा में अन्योन्याभाव नहीं है, जिस प्रकार की हम विपरीत
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