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... विक्रम टीका में लिखते है कि ज्ञान ही मोक्ष का हेतु है क्योंकि ज्ञान का प्रभाव होने से प्रज्ञानियों में अन्तरंग व्रत, नियम, सदाचरण और तपस्या आदि की उपस्थिति होते हुए भी मोक्ष का अभाव है। क्योंकि प्रज्ञान ही बन्ध का हेतु है। इस प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र बहुत कुछ रूप में ज्ञान को प्रमुख मान लेते है। उनका यह दृष्टिकोण जैन दर्शन को शंकराचार्य के निकट खड़ा कर देता है। फिर भी यह मानना कि जैन दृष्टि में ज्ञान ही मात्र मुक्ति का साधन है जैन विचारणा के मौलिक मन्तव्य से दूर होना है। साधना मार्ग में ज्ञान और क्रिया के श्रेष्ठत्व को लेकर आज तक विवाद चला आ रहा है किन्तु महावीर ने ज्ञान और आचरण दोनों से समन्वित साधना पथ का उपदेश दिया है। सूत्रकृतांग में महावीर कहते हैं कि मनुष्य चाहें वह ब्राह्मण हो, भिक्षुक हो अथवा अनेक शास्त्रों का जानकार हो यदि उसका आचरण अच्छा नहीं है तो वह अपने कृत्य कर्मों के कारण दुःखी ही होगा। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि अनेक भाषाओं एवम् शास्त्रों का ज्ञान आत्मा को शरणभूत नहीं होता। दूराचरण में अनुरक्त अपने आप को पंडित मानने वाले लोग वस्तुतः मूर्ख ही है। वे केवल वचनों से ही अपनी आत्मा को आश्वासन देते हैं । आवश्यक नियुक्ति में ज्ञान और प्राचरण के पारस्परिक सम्बन्ध का विवेचन अत्यन्त विस्तृत रूप से किया गया है। प्राचार्य भद्रबाहु कहते हैं कि आचरण विहीन अनेक शास्त्रों के ज्ञाता भी संसार समुद्र से पार नहीं होते। ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक प्रसिद्ध अंध पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता है या अकेला अंधा अथवा अकेलापंगु इच्छित साध्य को नहीं पहुंचते वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, अपितु दोनों के सहयोग से ही मुक्ति होती है ।३३ जैन दर्शन का यह दृष्टिकोण हमें उपनिषद् और बौद्ध परम्परा में भा प्राप्त होता है। बुद्ध कहते है जो ज्ञान और प्राचरण दोनों से समन्वित है वही देवताओं और मनुष्यों में श्रेष्ठ है।३४
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