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________________ जैन दर्शन का त्रिविध साधना मार्ग प्रकार श्रद्धा पर विवेक का स्थान स्वीकार किया गया है। बुद्ध कहते हैं 'श्रद्धा से ज्ञान बड़ा है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि बुद्ध मानवीय प्रज्ञा को श्रद्धा से पूर्णतया निर्मुक्त कर देते हैं ! बुद्ध की दृष्टि में ज्ञान विहीन श्रद्धा मनुष्य के स्व विवेक रूपी चक्षु को समाप्त कर उसे अन्धा बना देती है और श्रद्धाविहीन ज्ञान मनुष्य को संशय और तर्क के मरुस्थल में भटका देता है। इस मानवीय प्रकृति का विश्लेषण करते हुए विसुद्धिमग्न में कहा गया है कि बलवान श्रद्धावाला किन्तु मन्द प्रज्ञा वाला व्यक्ति बिना सोचे समझे हर कहीं विश्वास कर लेता है और बलवान प्रज्ञा किन्तु मन्द श्रद्धावाला व्यक्ति कुतार्किक (धूर्त) हो जाता है। वह औषधि से उत्पन्न होने वाले रोग के समान ही असाध्य होता है । इस प्रकार बुद्ध श्रद्धा और विवेक के मध्य एक समन्वयवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। जहाँ तक गीता का प्रश्न है निश्चय ही उसमें ज्ञान की अपेक्षा श्रद्धा की ही प्राथमिकता सिद्ध होती है क्योंकि गीता में श्रद्धेय को इतना समर्थ माना गया है कि वह अपने उपासक के हृदय में ज्ञान की प्राभा को प्रकाशित कर सकता है। सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र का पूर्वापर सम्बन्ध : चरित्र और ज्ञान दर्शन के सम्बन्ध की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में कोई विवाद नहीं है। जैन आगमों में चारित्र से दर्शन की प्राथमिकता बताते हुए कहा गया है कि सम्यक् दर्शन के अभाव में सम्यक् चरित्र नहीं होता। मक्त परिज्ञा में कहा गया है कि दर्शन से भ्रष्ट (पतित) ही वास्तविक रूप में भ्रष्ट है, चरित्र से भ्रष्ट भ्रष्ट नहीं है क्योंकि जो दर्शन से युक्त है वह संसार में अधिक परिभ्रमण नहीं करता जबकि दर्शन से भ्रष्ट व्यक्ति संसार से मुक्त नहीं होता है। कदाचित् चरित्र से रहित सिद्ध भी हो जावे लेकिन दर्शन से रहित कभी भी मुक्त नहीं होता । वस्तुतः दृष्टिकोण या श्रद्धा ही एक ऐसा तत्व है जो व्यक्ति के ज्ञान और प्राचरण को सही दिशा निर्देश कर सकता है। मध्ययुग के जैन प्राचार्य भद्रबाहु अाचारांग नियुक्ति में कहते हैं कि सम्यक् दृष्टि से ही तप, ज्ञान और सदाचरण सफल होते हैं ।२७ आध्यात्मिक संत नन्दघन जी दर्शन की महत्ता को सिद्ध करते हुए अनन्त जिन स्तवन में कहते हैं कि शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, छार (राख) पर लीपण तेह जाणोरे । सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की पूर्वापरता ___ जहाँ तक ज्ञान और चरित्र का सम्बन्ध है जैन विचारकों ने चरित्र को ज्ञान के बाद ही स्थान दिया है। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है कि जो जीव और अजीव के स्वरूप को नहीं जानता ऐसा जीव और अजीव के विषय में अज्ञानी साधक क्या धर्म (संयम) का आचरण करेगा ?२८ उत्तराध्ययन सूत्र में भी यही बताया गया है कि सम्यक् ज्ञान के अभाव में सदाचरण नहीं होता। इस प्रकार जैन दर्शन में आचरण के पूर्व सम्यक् ज्ञान का होना आवश्यक है फिर भी वे यह स्वीकार नहीं करते है कि अकेला ज्ञान ही मुक्ति का साधन हो सकता है। यद्यपि प्राचार्य अमृतचन्द्र सूरि ज्ञान की चरित्र से पूर्वता को सिद्ध करते हुए एक चरम सीमा का स्पर्श कर लेते हैं वे अपनी समय सार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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