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________________ विक्रम हमारे अपने दृष्टिकोण में इनमें से किसे प्रथम स्थान दिया जाय इसका निय करने के पूर्व हमें दर्शन शब्द का क्या अर्थ है, इसका निश्चय कर लेना चाहिए । दर्शन शब्द के दो अर्थ हैं - १. यथार्थ दृष्टिकोण और २. श्रद्धा । यदि हम दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ लेते है तो हमें साधनामार्ग की दृष्टि से उसे प्रथम स्थान देना चाहिए । क्योंकि यदि व्यक्ति का दृष्टिकोण ही मिथ्या है, प्रयथार्थ है तो, न तो उसका ज्ञान सम्यक् ( यथार्थ ) होगा और न चारित्र हो । यथार्थ दृष्टि के प्रभाव में यदि ज्ञान और चारित्र सम्यक् प्रतीत भी हो तो भी वे सम्यक नहीं कहे जा सकते, वह तो संयोगक प्रसंग मात्र है, ऐसा साधक भी दिग्भ्रांत हो सकता है । जिसकी दृष्टि ही दूषित है, वह सत्य को जानेगा और क्या उसका समाचररण करेगा ? दूसरी ओर यदि हम सम्यक् दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ लेते हैं तो उसे ज्ञान के पश्चात् ही स्थान देना चाहिए । क्योंकि अविचल श्रद्धा तो ज्ञान के बाद ही उत्पन्न हो सकती है । उत्तराध्ययन सूत्र में भी दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ करते समय ज्ञान के बाद ही स्थान दिया गया है ग्रन्थकार कहते हैं कि 'ज्ञान से पदार्थ (तत्व) स्वरूप को जानें और दर्शन के द्वारा उस पर श्रद्धा करें । व्यक्ति के स्वानुभव (ज्ञान) के पश्चात् ही जो श्रद्धा उत्पन्न होती है उसमें जो स्थायित्व होता है वह स्थायित्व ज्ञानाभाव में प्राप्त हुई श्रद्धा नहीं हो सकता । ज्ञानाभाव में जो श्रद्धा होती है, उसमें संशय होने की सम्भावना हो सकती है ऐसी श्रद्धा वास्तविक श्रद्धा नहीं वरन् अन्ध श्रद्धा ही हो सकती है । जिन-प्रणीत तत्वों में भी यथार्थ श्रद्धा तो उनके स्वानुभव एवम् तार्किक परीक्षण के पश्चात् हो सकती है। यद्यपि साधनामार्ग के प्राचरण के लिए श्रद्धा अनिवार्य तत्त्व है, लेकिन वह ज्ञान प्रसूत होना चाहिए । सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "धर्म की समीक्षा प्रज्ञा के द्वारा करें, तर्क से तत्व का विश्लेषण करें ।' इस प्रकार यथार्थ दृष्टिपरक अर्थ में सम्यक् दर्शन को ज्ञान के पूर्व लेना चाहिए और श्रद्धापरक अर्थ में ज्ञान के पश्चात् । उत्तराध्ययन ६ न केवल जैन-दर्शन में अपितु बौद्ध दर्शन और गीता में भी ज्ञान और श्रद्धा के सम्बन्ध का प्रश्न बहुचर्चित रहा है। चाहे बुद्ध ने आत्मदीप एवम् श्रात्मशरण के स्वर्णिम सूत्र का उद्घोष किया हो, किन्तु बौद्ध दर्शन में श्रद्धा का महत्वपूर्ण स्थान सभी युगों में मान्य रहा है । सुत्तनिपात में प्रालवक यक्ष के प्रति स्वयं बुद्ध कहते हैं मनुष्य का श्रेष्ठ धन श्रद्धा है । २१ गीता में भी श्रद्धा या भक्ति एक प्रमुख तथ्य है मात्र इतना ही नहीं, अपितु गीता और बौद्ध दर्शन दोनों में ही ऐसे सन्दर्भ हैं जिनमें ज्ञान के पूर्व श्रद्धा को स्थान दिया है । ज्ञान की उपलब्धि के साधन के रूप में श्रद्धा को स्वीकार करके बुद्ध गीता की विचारणा के अत्यधिक निकट आ जाते हैं । गीता के समान ही बुद्ध सुत्तनिपात में ग्रावक यक्ष से कहते हैं निर्वारण की ओर ले जाने वाले प्रर्हतो के धर्म में श्रद्धा रखने वाला २२ प्रमत्त और विचक्षरण पुरुष प्रज्ञा को प्राप्त करता है । 'श्रद्धावल्लभते ज्ञानं' और 'सहहानो लभते पज्ज' का शब्द साम्य दोनों ग्राचार दर्शनों में निकटता देखने वाले विद्वानों के लिए विशेष रूप से द्रष्टव्य है । लेकिन यदि हम श्रद्धा को आस्था के अर्थ में ग्रहण करते हैं तो बुद्ध की दृष्टि में प्रज्ञा प्रथम है और श्रद्धा द्वितीय स्थान पर । संयुक्त निकाय में बुद्ध कहते हैं श्रद्धा पुरुष की साथी है और प्रज्ञा उस पर नियन्त्रण करती है । * Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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