________________
जैन-दर्शन का त्रिविध साधनामार्ग
१५
सम्यक् चारित्र का अर्थ
जैन परम्परा में सम्यक् चारित्र के दो रूप माने गए हैं १-व्यवहार और २. निश्चय चरित्र । आचरण का बाह्य पक्ष या पाचरण के विधि विधान व्यवहार चरित्र कहे जाते हैं। जबकि आचरण की अन्तरात्मा निश्चय चरित्र कही जाती है। जहाँ तक नैतिकता के वैयक्तिक दृष्टिकोण का प्रश्न है अथवा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का प्रश्न है, निश्चयात्मक चारित्र ही उसका मूलभूत आधार है। लेकिन जहाँ तक सामाजिक जीवन का प्रश्न है चारित्र का बाह्य पक्ष ही प्रमुख है।
निश्चय दृष्टि से चारित्र-निश्चय दृष्टि से चारित्र का सच्चा अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है ।१५ मानसिक या चंतिसिक जीवन में समत्व की उपलब्धि यही चारित्र का पारमार्थिक या नैश्चयिक पक्ष है। वस्तुतः चारित्र का यह पक्ष आत्म-सरमण की स्थिति है। नैश्चयिक चारित्र का प्रादुर्भाव केवल अप्रमत्त अवस्था में ही होता है । अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होने वाले सभी कार्य शुद्ध ही माने गए हैं। चेतना में राग, द्वेष, कषाय और वासनाओं की अग्नि पूरी तरह शांत हो जाती तभी सच्चे नैतिक एवम् धार्मिक जीवन का उद्भव होता है और ऐसा ही सदाचार मोक्ष का कारण होता है। अप्रमत्त चेतना जो कि नैश्चयिक चारित्र का आधार है। राग, द्वेष, कषाय, विषय वासना, आलस्य और निद्रा से रहित अवस्था है । साधक जब जीवन की प्रत्येक क्रिया के सम्पादन में आत्म-जाग्रत होता है, उसका आचरण बाह्य आवेगों और वासनाओं से चालित नहीं होता है तभी वह सच्चे अर्थों में नैश्चयिक चारित्र का पालनकर्ता माना जाता है। यही नैश्चयिक चारित्र मुक्ति का सोपान कहा गया है।
व्यवहार चारित्र--- व्यवहार चारित्र का सम्बन्ध हमारे मन, वचन और कर्म की शुद्धि तथा उस शुद्धि के कारणभूत नियमों से है। सामान्यतया व्यवहार चारित्र में पंच महाव्रत, तीन गुप्ति, पंच समिति आदि का समावेश है । सभ्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान का पूर्वापर सम्बन्ध ---
ज्ञान और दर्शन की पूर्वापरता को लेकर जैन विचारणा में काफी विवाद रहा है । कुछ प्राचार्य दर्शन को प्राथमिक मानते हैं तो कुछ ज्ञान को, कुछ ने दोनों का योगपद्य (समानान्तरता) स्वीकार किया है। आचार मीमांसा की दृष्टि से दर्शन की प्राथमिकता का प्रश्न ही प्रबल रहा है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता ।१६ इस प्रकार ज्ञान की अपेक्षा दर्शन को प्राथमिकता दी गई है। तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वामी ने भी अपने ग्रन्थ में दर्शन को ज्ञान और चरित्र के पहले स्थान दिया है। अचार्य कुन्दकुन्द दर्शन पाहुड में कहते हैं कि धर्म (साधनामार्ग) दर्शन प्रधान है।
लेकिन दूसरी ओर कुछ सन्दर्भ ऐसे भी हैं जिनमें ज्ञान की प्राथमिकता भी देखने को मिलती है। उत्तराध्ययन सूत्र में उसी अध्याय में मोक्षमार्ग की विवेचना में जो क्रम है उसमें ज्ञान का स्थान प्रथम है। वस्तुतः इस विवाद में कोई ऐकान्तिक निर्णय लेना अनुचित ही होगा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org