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विक्रम
सामान्य दृष्टि से सम्यक जान अनेकान्त या वैचारिक अनाग्रह है और इस रूप में वह विचार शुद्धि का माध्यम है। जैन-दर्शन के अनुसार एकान्त मिथ्यात्व है क्योंकि वह सत्य के अनन्त पक्षों का अपलाप करता है। एकान्त या आग्रह की उपस्थिति में व्यक्ति सत्य को सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकता है। जब तक आग्रह बुद्धि है तब तक वीतरोगता सम्भव ही नहीं है और जब तक वीतराग दृष्टि नहीं है तब तक यथार्थ ज्ञान भी असम्भव है। जैन-दर्शन के अनुसार सत्य के अनन्त पहलुओं को जानने के लिए अनेकान्त दृष्टि सम्यक् ज्ञान है। एकान्त दृष्टि या वैचारिक आग्रह अपने में निहित छद्म राग के कारण सत्य को रंगीन कर देता है इस प्रकार एकान्त या आग्रह सत्य के साक्षाकार में बाधक है । परम सत्य को अपने सम्पूर्ण रूप में प्राग्रह बुद्धि नहीं देख सकती। जब तक आँखों पर रागद्वेष, आसक्ति या आग्रह का रंगीन चश्मा है अनावृत सत्य का साक्षात्कार सम्भव नहीं है । वैचारिक आग्रह न केवल व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को कुंठित करता है वरन् सामाजिक जीवन में भी विग्रह और वैमनस्य के बीज बो देता है। सम्यक् ज्ञान एक अनाग्रही दृष्टि है । वह उस भ्रान्ति का भी निराकरण करता है कि सत्य मेरे ही पास है, वरन् वह हमें बताता है कि सत्य हमारे पास भी हो सकता है और दूसरों के पास भी । सत्य न मेरा है न पराया, जो भी उसे मेरा और पराया करके देखता है वह उसे ठीक ही प्रकार से समझ ही नहीं सकता। सूत्रकृतांग में कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में अपना पांडित्य दिखाते हैं वह एकान्तवादी संसार चक्र में भटकते फिरते है ।१२ अतः जैन साधना की दृष्टि से वीतरागता को उपलब्ध करने के लिए वैचारिक आग्रह का परित्याग और अनाग्रही दृष्टि का निर्माण प्रावश्यक है और यही सम्यक ज्ञान भी है।
____एक अन्य दृष्टि से सम्यक् ज्ञान प्रात्म-अनात्म का विवेक है। यह सही है कि आत्मतत्त्व को ज्ञान का विषय नहीं बनाया जा सकता है, उसे ज्ञाता-ज्ञेय के द्वैत के आधार पर नहीं जाना जा सकता है, क्योंकि वह स्वयम् ज्ञान-स्वरूप है, ज्ञाता है और ज्ञाता ज्ञेय नहीं बन सकता लेकिन अनात्म तत्व तो ऐसा है जिसे हम ज्ञाता और ज्ञेय के द्वैत के आधार पर जान सकते हैं । सामान्य व्यक्ति भी अपने साधारण ज्ञान के द्वारा इतना तो जान ही सकता है कि उसके ज्ञान के विषय क्या हैं ? और जो उसके ज्ञान के विषय हैं वे उसके स्वस्वरूप नहीं हैं, वे अनात्म हैं। सम्यक ज्ञान आत्म ज्ञान है, किन्तु आत्मा को अनात्म के माध्यम से ही पहचाना जा सकता है । अनात्म के स्वरूप को जानकर अनात्म से प्रात्म का भेद करना यही भेद विज्ञान है और यही जैन-दर्शन में सम्यक् ज्ञान का मूल अर्थ है।
इस प्रकार जैन-दर्शन में सम्यक् ज्ञान प्रात्म अनात्म का विवेक है। प्राचार्य अमृतचन्द्र सूरि के अनुसार जो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस प्रात्म अनात्म के विवेक या भेद विज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो बन्धन में हैं, वे इसके अभाव के कारण ही हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में इस भेद विज्ञान का अत्यन्त गहन विवेचन किया है। प्राचार्य कुन्दकुन्द का यह विवेचन अनेक बार हमें बौद्ध त्रिपटकों की याद दिला देता है जिसमें अनात्म के विवेचन को इतनी ही अधिक गम्भीरता से किया गया है । ५०
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