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________________ जैन दर्शन का त्रिविध साधनामार्ग परिस्थितियों के कारण यही शब्द अपने दूसरे अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । प्रथमतः हम यह देखते हैं कि बुद्ध और महावीर के युग में प्रत्येक धर्म प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक् दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्या दृष्टि कहता था, लेकिन यहाँ पर मिथ्या दृष्टि शब्द मिथ्या श्रद्धा के अर्थ में नहीं वरन् गलत दृष्टिकोण के अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ हैं । जीवन और जगत के सम्बन्ध में अपने से भिन्न दूसरों के दृष्टिकोणों को ही मिथ्या दर्शन कहा जाता था । प्रत्येक धर्म प्रवर्तक आत्मा और जगतके स्वरूप के विषय में अपने दृष्टिकोण को सम्यक् दृष्टि और अपने विरोधी के दृष्टिकोरण को मिथ्या दृष्टि कहता था । सम्यक् दर्शन शब्द अपने दृष्टिकोण पर के अर्थ के बाद तत्त्वार्थ श्रद्धान के अर्थ में भी अभिरूढ़ हुआ । तत्त्वार्थ श्रद्धान के अर्थ में भी 'सम्यक् दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अत्रिक दूर नहीं हुआ था, यद्यपि उसकी दिशा बदल चुकी थी । उसमें श्रद्धा का तत्व प्रतिष्ठित हो गया था । यद्यपि यह श्रद्धा तत्त्व के स्वरूप की मान्यता के सन्दर्भ में ही थी । वैयक्तिक श्रद्धा का विकास बाद की बात थी । यह श्रद्धा बौद्धिक श्रद्धा थी । लेकिन जैसे भागवत सम्प्रदाय का विकास हुआ। उसका प्रभाव श्रमण परम्पराओं पर भी पड़ा । तत्त्वार्थ श्रद्धा अब बुद्ध और जिन पर केन्द्रित होने लगी । वह ज्ञानात्मक से भावात्मक और निर्वैयक्तिक से वैयक्तिक बन गई । जिसनें जैन और बौद्ध परम्परानों में भक्ति के तत्त्व का वपन किया । यद्यपि यह सब कुछ आगम एवम् पिटक ग्रन्थों के संकलन एवम् उनके लिपिबद्ध होने तक हो चुका था । फिर भी हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि सम्यक् दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ भाषाशास्त्रीय विश्लेषण की दृष्टि से उसका प्रथम एवम् मूल अर्थ है । तत्त्व श्रद्धापरक अर्थ एक परवर्ती अर्थ है । यद्यपि ये परस्पर विपरीत नहीं हैं । प्राध्यात्मिक साधना के लिए दृष्टिकोण की यथार्थता अर्थात् राग द्वेष से पूर्ण विमुक्त दृष्टि का होना आवश्यक है, किन्तु साधक अवस्था में राग द्वेष से पूर्ण विमुक्ति सम्भव नहीं है । अतः जब तक वीतराग दृष्टि या यथार्थ दृष्टि उपलब्ध नहीं होती तब तक वीतराग के वचनों पर श्रद्धा आवश्यक है । सम्यक् दर्शन को चाहे यथार्थ दृष्टि कहे या तत्त्वार्थ श्रद्धान उसमें बास्तविकता की दृष्टि से अधिक अन्तर नहीं होता है । अन्तर होता है उनकी उपलब्धि की विधि में । एक वैज्ञानिक स्वतः प्रयोग के आधार पर किसी सत्य का उद्घाटन कर वस्तुतत्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है किन्तु दूसरा व्यक्ति ऐसे वैज्ञानिक के कथनों पर विश्वास करके भी वस्तुतत्त्व के यथार्थ स्वरूप को जानता है । यद्यपि यहाँ दोनों का ही दृष्टिकोण यथार्थ होगा, फिर भी एक ने उसे स्वानुभूति में पाया है तो दूसरे उसे श्रद्धा के माध्यम से । एक ने तत्त्व साक्षात्कार किया है तो दूसरे ने तत्त्व श्रद्धा । फिर भी हमें यह मान लेना चाहिए कि तत्व श्रद्धा मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विषय है, जब तक कि तत्व साक्षात्कार नहीं होता । पण्डित सुखलालजी के शब्दों में तत्त्व श्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, अन्तिम अर्थ तत्त्व साक्षात्कार या स्वानुभूति ही है और यही सम्यक दर्शन का वास्तविक अर्थ है । ने ११ सम्यक् ज्ञान का अर्थ ६ ३ ज्ञान को मुक्ति का साधन स्वीकार किया गया है, लेकिन कौन सा ज्ञान मुक्ति के लिए आवश्यक है, यह विचारणीय है । जैन दर्शन में सम्यक् ज्ञान के दो रूप पाये जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.523101
Book TitleVikram Journal 1974 05 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRammurti Tripathi
PublisherVikram University Ujjain
Publication Year1974
Total Pages200
LanguageHindi, English
ClassificationMagazine, India_Vikram Journal, & India
File Size11 MB
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