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________________ ३२८ जैनहितैषी - अन्य धार्मिक संस्थाओं द्वारा यद्यपि नैतिक और सामाजिक लाभ होते हैं, तथापि आर्थिक दृष्टिसे सांपत्तिक हानि ही होती है। सार्वजनिक पुस्तकालय द्वारा नैतिक और उसी प्रकार सांपत्तिक भी लाभ होता है; क्योंकि जिन जिन लोगोंको पुस्तकोंकी, खबरोंकी, या अन्य किसी वस्तुके प्राप्तिस्थलके ज्ञानकी आवश्यकता होती है तो वे सब पुस्तकें या जरूरी बातें मुफ्त में मिलने के कारण उन लोगों के उतने पैसे बचते हैं और . उन पैसोंको वे लोग अपने घर के जरूरी कामोंमें खर्च कर सकते हैं । ६ - सर्व साधनों से युक्त और सुव्यवस्थित रूपसे चलनेवाले पुस्तकालय सब जगह होनेसे अन्य प्रकारकी धार्मिक संस्थाओंकी जरूरत बहुत कम हो जाती है । जिस समाजको किसी भी प्रकारके धर्मादायकी जरूरत नहीं वही समाज आदर्शभूत है । जिस समाजमें सार्वजनिक धर्मादाय प्रचलित रहते हैं उस समाजकी रचनायें अनेक त्रुटियाँ हैं, ऐसा पर्याय से कुबूल करना पड़ता है और उन त्रुटियों को दूर करनेके लिये ही धर्मादायोंका ( दान करनेका ) अस्तित्व हुआ । पुस्तकालयों के द्वारा जो अच्छे विचार, जो बौद्धिक स्फूर्ति, उद्योग व्यापारादिमें जो प्रवीता वगैरह प्राप्त होती हैं उनके द्वारा मनुष्यजीवन ऐसा समृद्धिवान होता है, कि लोगोंको सामुदायिक धर्मादाय पर ( आहार, औषध और अभयादि दानोंपर ) अवलंबित रहनेका प्रसंग दिन पर दिन कम होता जाता है । कुछ परिमाणसे यह कार्य सचमुच ही सार्वजनिक पुस्तकालय कर रहे हैं । लॉर्ड अॅव्हबरीने एक जगह कहा है कि “ किसी भी समाजको पुस्तकालयों पर जो खर्च करना पड़ता है, वह दरिद्रता और उसके द्वारा होनेवाले अपराधोंका परिमाण कम होनेसे समाजको व्याजसहित वापिस मिल जाता है । " Jain Education International [ भाग १४ ७ -- अंतमें समाजकी अन्य संस्थाओंके सुव्यवस्थित रूपसे चलने और उनके द्वारा ष्ट लाभकी प्राप्ति के लिये पुस्तकालयोंकी बड़ीभारी आवश्यकता हुआ करती है। कोई भी पाठशाला, विद्यालय, महाविद्यालय, औद्योगिक संस्था, देवालय, समाजसेवासंघ अर्थात् सभा सुसाइटियाँ मंडल वगैरह अंतर्राष्ट्रीय धर्मादाय कार्य इन सबको अपने अपने उद्देशकी योग्य रीतसे पूर्ति करनेके लिये और उसमें कौशल्य तथा प्रवीणता संपादन करनेके लिये अच्छे अच्छे ग्रंथसंग्रहालयोंकी ही सहायता लेनी पड़ती है । विना ग्रंथसंग्रहालयकी सहायता के अन्य संस्थाओंका कार्य भली भाँति परिपूर्ण नहीं होने पाता । इस युक्तिवादको पढ़ने से प्रत्येक मनुष्यक विश्वास हो जायगा कि पुस्तकालय स्थापन करने और उनकी सहायता करनेसे अन्य सब सब धार्मिक कार्योंमें नूतन सामर्थ्य और कर्तृत्व पैदा करनेके समान समाजकी प्रत्येक अच्छी संस्थाको अधिक अच्छी और अधिक संपन्न करना है । क्या हमारी जैनकौमके नेता, श्रीमान और समाजकी सभा सुसाइटियोंके सदस्य जैन पुस्तकालय स्थापित करेंगे ? बन्धुओ, अब इन रूढ़ि आदि त्रिकुटों का सत्यानाश करो जिन्होंने तुम्हारे सत्य धर्मके प्रचारमें रोड़ा अटका रक्खा है और सामाजिक उन्नति के मार्गसे तुम्हें नीचे ढकेल दिया है । प्रत्येक नगर और ग्राममें अपने पुस्तकालय खोल दो और सबके लिये उनका द्वार मुक्त कर दो। उन्हीं पुस्तकालयों में एक एक रात्रिशालाका भी विभागः रख दो जिसमें लोगोंको पुस्तकें पढ़ने को दी जायँ और साधारण लिखना पढ़ना सिखलाया जाय । बड़े बड़े नगरों में पुस्तकालय के साथ साथ एक ऐसा औद्योगिक विभाग भी होना चाहिये,, जिसमें समाजके नव युवक शिक्षा प्राप्त कर अपनी आजीविकासे वंचित न रह सकें । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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