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________________ अङ्क १०-११] नयचक्र और श्रीदेवसेनसूरि। '३०५ नयचक्र और श्रीदेवसेनसरि । नेकी सिफारिश करते । इसके सिवाय जैसा, आगे चलकर बतलाया जायगा, देवसेनसूरि विद्यानन्द स्वामीके पीछेके ग्रन्थकर्ता हैं । अतः [ लेखक-श्रीयुत नाथूराम प्रेमी।] श्लोकवार्तिकमें जिस नयचक्रका उल्लेख है, वह कोई दूसरा ही नयचक्र होगा। नयचक्र। - श्वेताम्बरसंप्रदायमें ' मल्लवादि' नामके एक आचार्य विद्यानन्दने अपने श्लोकवातिक बडे भारी तार्किक हो गये हैं । आचार्यहरिभ( तत्त्वार्थसूत्रटीका ) के नयविवरण नामक द्रने अपने ‘अनेकांत-जयपताका' नामक प्रकरणके अन्तमें लिखा है: ग्रंथमें वादिमुख्य मल्लवादिकृत 'सम्मति-टीका के संक्षेपेण नयास्तावव्याख्याताः सूत्रसूचिताः। कई अवतरण दिये हैं और श्रद्धेय मुनि जिनवितद्विशेषाः प्रपञ्चेन संचिंत्त्या नयचक्रतः ॥ जयजीने अनेकानेक प्रमाणोंसे हरिभद्रसूरिका समय अर्थात् तत्त्वार्थसूत्र में जिन नयोंका उल्लेख वि० सं०७५७ से ८२७ तक सिद्ध किया है। अतः है, उनका हमने संक्षेपमें व्याख्यान कर दिया। आचार्य मल्लवादि विक्रमकी आठवीं शताब्दिके यदि उनका विस्तारसे और विशेषपूर्वक स्वरूप पहलेके विद्वान् हैं, यह निश्चय है । और विद्याजाननेकी इच्छा हो के ' नयचक्र' से जानना। नन्दस्वामी विक्रमकी ९ वीं शताब्दिमें हुए हैं। इस उल्लेखसे मालूम होता है कि विद्यानन्द यह भी प्रायः निश्चित हो चका है। स्वामीसे पहले 'नयचक ' नामका कोई ग्रन्थ उक्त मल्लवादिका भी एक नयचक्र' नाथा जिसमें नयोंका स्वरूप खूब विस्तारके साथ मका ग्रंथ है जिसका परा नाम 'द्वादशारदिया गया है । परन्तु वह नयचक्र यही देवसेन- नयचक । है । जिसतरह चक्रमें आरे होते सृरिका नयचक्र था, ऐसा नहीं जान पड़ता । हैं, उसी तरह इसमें बारह आरे अर्थात् क्योंकि यह बिलकुल ही छोटा है । इसमें कुल अध्याय हैं। यह ग्रंथ बहुत बड़ा है । इसपर ८७ गाथायें हैं और माइल्ल धवलके बृहत् नय- आचार्य यशोभद्रजीकी बनाई हुई एक टीका चक्रमें भी नयसम्बन्धी गाथाओंकी संख्या इससे है जिसकी श्लोकसंख्या १८००० है । यह 'अधिक नहीं है। इन दोनों ही ग्रन्थोंमें नयोंका अनेक श्वेताम्बर पुस्तकालयोंमें उपलब्ध है। स्वरूप बहुत संक्षेपमें लिखा गया है । इनसे संभव है कि विद्यानन्दस्वामीने इसी नयचक्रको अधिक तो स्वामी विद्यानन्दने ही नयविवरणमें लक्ष्य करके पूर्वोक्त सूचना की हो । जिस तरह लिख दिया है। नयविवरणकी श्लोकसंख्या ११८ हरिवंशपुराण और आदिपुराणके कर्त्ता दिगंहै और उनमें नयोंका स्वरूप बहुत ही उत्तम बर जैनाचार्योंने सिद्धसेनसूरिकी प्रशंसा की रीतिसे नयचक्रकी भी अपेक्षा स्पष्टतासे-लिखा है-जो कि श्वेताम्बराचार्य समझे जाते हैंहै। ऐसी दशामें यह संभव नहीं कि श्लोक- उसी तरह विद्यानन्दस्वामीने भी श्वेतांबराचार्य वार्तिकके कर्ता अपने पाठकोंसे देवसेनसूरिके - १ अहमदाबादमें सेठ मनसुखभाई भग्गूभाईके द्वारा नयचक्रपरसे विस्तारपूर्वक नयोंका स्वरूप जान छप चुका है । २ यह आचार्य सिद्धसेनसूरिके * माणिकचन्दजैनग्रन्थमालाके १६ वें ग्रन्थ 'सम्मतितर्क' नामक ग्रंथकी टीका है। ३ देखो. 'नयचक्र-संग्रह ' की भूमिकाके लिए यह लेख लिखा जैनसाहित्यसंशोधक अंक १। ४ देखो जैनहितैषी गया था और वहींसे यहाँ उद्धृत किया जाता है। वर्ष ९ अंक ९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522883
Book TitleJain Hiteshi 1920 Ank 07 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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