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________________ १४६ जैनहितैषी [भाग १४ दौरा करके आये थे। उनके द्वारा मालुम हुआ अपने उपदेशोंका रुख बदलना चाहिए। जब तक कि उक्त प्रान्तोंकी रियासतोंमें परवार जातिके वे इनका सर्वथा निषेध न करेंगे, और डंकेकी लोगोंकी दुरवस्थाका वर्णन नहीं हो सकता। वे चोट इनका विरोध करके दूसरे उपयोगी काबेचारे पढ़ेगे लिखेंगे तो कहाँसे, (पढाने लिखा- भोंमें दान करनेका प्रतिपादन न करेंगे, तब . तक ये गतानुगतिक भेड़िया धसान लोग माननेके वहाँ साधारण सुभीते भी नहीं है,) पेट नेके नहीं। उनमें इतनी सूक्ष्म बुद्धि नहीं कि भर भोजन पाना भी उनके भाग्यमें नहीं हैं। वे आपके शभास्रवोंके तारतम्यको समझ सकें। न वहाँ कोई व्यापारका क्षेत्र है और न उनके जब तक उनके सामने यह कहा जाता रहेगा पास पूँजी ही है कि उससे वे कोई रोजगार कर कि " यद्यपि ये भी पुण्यबन्धके कारण हैं, सकें । बंजी और मेहनत मजदूरी करके ही वे स्वर्गमोक्षके दाता हैं, " तबतक वे इसके आ. किसी तरह अपना जीवन धारण कर रहे हैं । गेकी यह बात समझनेवाले नहीं कि “परन्त उनकी दुर्दशा देखकर पत्थर भी पसीज उठता इस समय विद्याकी बहुत बड़ी आवश्यकता है, है। अन्यत्रके परवारोंमें भी इतनी नहीं, तो अतएव इसीके प्रचारके लिए दान करना चा. भी कम निर्धनता नहीं है । कुछ शहरों और हिए।" वे 'यद्यपि' और 'परन्तु ' से जकड़ी खास खास स्थानोंको छोड़कर इस जातिका हई बातोंको नहीं समझते । उनसे तो साफ साफ अधिकांश ग्रामोंमें रहता है और वह निर्धनताके कहा जाना चाहिए । समुद्रमें ही डूबा हुआ है। इसी कारण इसमें । शिक्षितों-विशेष करके उच्च श्रेणीके शिक्षितों-की ९माणिकचन्द दि० जैन-ग्रन्थमाला। संख्या बहुत ही कम-प्रायः नहींके ही बराबरहै । यह अवस्था देखकर प्रश्न उठता है कि यह जानकर पाठक प्रसन्न होंगे कि अब क्या इस जातिके धनियोंके-इन रथप्रतिष्ठा- माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालाके कामके लिए एक ओंमें लाखों रुपये खर्च कर डालनेवालों के स्थायी विद्वान्, पं० पन्नालालजी सोनीकी हृदय नहीं है? दयामय धर्मके उपासक होकर नियुक्ति कर ली गई है, इस लिए अब ग्रन्थभी क्या ये उक्त गरीबोंपर दया करना अपना प्रकाशनका कार्य पहलेकी अपेक्षा अधिकतासे होने लगेगा और संशोधन तथा सम्पादनके कर्तव्य नहीं समझते ? इतनी विवेक बुद्धि इनमें , कार्यमें भी विशेष उन्नति होगी। ग्रन्थमालाकी कब जाग्रत होगी जब ये अपने भाइयों की, प्रबन्धकारिणी कमेटीने नीचे लिखे आठ नवीन निर्धनों और अनाथोंकी सहायता करना अपना पहला धर्म समझेंगे ! इन सब बातोंपर विचार ग्रन्थाको प्रकाशित करनेकी अनुमति दे दी है:करते हुए उन पण्डितों और जातिके पंचों पर बड़ी ही १ न्यायकुमुदचन्द्रोदय । ( संस्कृत ) । विरक्ति उत्पन्न होती है जो इन अविवेकियों को, आचार्य प्रभाचन्द्रकृत । इस समयके लिए सर्वथा निरर्थक, इन रथप्रति- २ न्यायविनिश्चयालकार । (संस्कृत) छाओं जैसे कामोंमें धन खर्च करने के लिए आचार्य वादिराजकृत । उत्साहित तथा प्रेरित किया करते हैं और उन्हें सिंघई, सवाई सिंघई आदिकी पदवियोंसे सम्मा- ३ त्रैलोक्यप्रज्ञाप्त । प्राकृत । यतिवृषनित करते हैं । अब उपदेशकों और पण्डितोंको भाचार्यकृत ।
SR No.522877
Book TitleJain Hiteshi 1920 01 02 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1920
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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