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________________ गिज हरगिज अपने पाससे, अपने आश्रयसे, पृथक् न करो । गाँधीका सत्याग्रह आश्रम निर्भयताका व्रत | देश भरमें मैंने खूब घूम कर देखा कि शिक्षित भारत पर भय छाया हुआ है। लोगों में हृदयकी बातें खुल्लमखुल्ला कहने का साहस नहीं है । गुपचुप चहारदीवारी के भीतर हम अपना मत प्रकट करते हैं, परन्तु लोगों के सामने नहीं। जो खुल्लमखुल्ला कहेंगे उसे हृदयसे न चाहेंगे । यह हाल सभीने देखा होगा । मैं तुमसे कहता हूँ कि ईश्वर के सिवा किसीसे डरने की आवश्यकता नहीं, यदि तुम सत्यका किसी भी रूपमें पालन करना चाहते हो तो निर्भय होना पड़ेगा | अछूतोद्धार । आठवीं बात है अछूतों के विषय में । यह रोग हिन्दुओं में बेतरह घुस बहुत पड़ा है । हम अछूतोंके साथ इस प्रकारका व्यवहार करके अत्यन्त पापके भागी बन रहे हैं । तुममें इतनी शिक्षा ग्रहण करने पर भी यह कमजोरी ऐसी ही बनी है तो मैं कहता हूँ . कि तुम्हारा यह ज्ञानोपार्जन करना, यह पढ़ना और लिखना बिल्कुल फिजूल है । यह सच हो सकता है कि तुम शिक्षा विदेशी भाषा में ग्रहण करनेके कारण अपने सच्चे भावोंको अपने उन कुटुम्बियोंमें, जिनके जंजीर में तुम बँधे हो, न डाल सको । पर इसी लिए हमने इस आश्रमकी शिक्षाका माध्यम देशी भाषा रक्खा है । और इसमें जितनी देशी भाषाओं की शिक्षा हो सकेगी दी जायगी और वह भी जो विदेशीय भाषा के शिक्षा के लिए जितने कष्ट उठाने पड़ते हैं उनसे कमही में । ૭ Jain Education International २२५ राजनीति | इसके लिए तुम्हें उस समय तैयार होना चाहिए जब उपर्युक्त नियमोंको भली प्रकार दृढ़तापूर्वक निबाह लो । धर्मसे बिछुड़ी हुई राजनीतिक कोई अर्थ नहीं होते । यदि देश के सभी विद्यार्थी राजनैतिक क्षेत्रकी ओर झुक जाँय तो यह कोई अच्छा चिह्न नहीं, परन्तु इसके ये अर्थ नहीं है कि हम विद्यार्थी-जीवनमें राजनीति न सीखें । राजनीति भी हमारे जीवनका एक अंग है । राष्ट्रीय संस्थाओं और लिए राष्ट्रीय विकास के समझने के प्रत्येक आश्रमवासी बालकको राजनैतिक संस्थाओं और देशमें प्रसारित नये भावों और नये जीवनकी बातें बतलाई जाती हैं, परन्तु साथ ही हमें हृदय और बुद्धिके धार्मिक - विश्वासके अक्षयप्रकाशकी भी आवश्यकता है । आजकल तो युवकोंकी यह हालत है कि जहाँ विद्यार्थी - जीवन समाप्त हुआ कि फिर वे मिट्टीमें मिल गये । टुटपुंजिया नौकरी कर ली, थोड़ी तनख्वाहोंमें फँस गये । वे परमात्माको नहीं जानते, ताजी हवा और ताजे उजेलेका उन्हें क्या पता, , उन्हें क्या पता उस तेज - पूर्ण स्वाधीनताका जो इन नियमों के पालनसे प्राप्त होती है, जो मैं तुम्हें बतला चुका | अन्त में । मैं तुमसे आश्रम में आनेके लिए नहीं कहता क्योंकि उसमें स्थान ही नहीं । हाँ अलग अलग आश्रमका-सा जीवन व्यतीत करो । मेरी बातोंमेंसे जो बात तुम्हें पसन्द आई हो उसी - के अनुसार काम करो । यदि तुम खयाल करते हो कि यह एक पागलकी बातें हैं तो स्पष्ट कह दो, मुझे तुम्हारे इस फैसले से कोई आश्चर्य न होगा । ( प्रतापसे उद्धृत ) For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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