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________________ २२४ जैनहितैषी । सारी शक्ति तुम्हारे ऊपर खर्च हो जायगी और तुम्हारी पवित्र धरोहर ज्योंकी त्यों बनी रहेगी ब्रह्मचर्य्य-व्रत | । तीसरी प्रतिज्ञा है ब्रह्मचर्य की। जिनमें जातीय - जीवन की लहर है, जो जातिकी सेवा करना चाहते हैं वे ब्रह्मचर्य व्रत धारण करें । यदि उनका व्याह हो गया हो तो भी कोई हर्ज नहीं । विवाहसे तो घनिष्ठताका एक ऐसा सम्बन्ध हो जाता है कि स्त्री और पुरुष कभी और किसी जन्ममें एक दूसरेसे पृथक् न हों, क्या आवश्यकता है कि इस बन्धनमें रति-कार्य अनिवार्य ही हो ! स्वादका संयम चौथी बात है चिटोरापन छोड़ना, रुचिको अपने वश में करना । इसकी भी वैसी ही प्रतिज्ञा करनी होगी जैसे औरों के लिए, और यद्यपि इसका वशमें लाना तनिक कठिन है किन्तु यह हो जाता है बड़ी आसानीसे । आप स्वादके गुलाम न बनिए। बस, फिर सीधे ही पिण्ड छूट जायगा । मैं अभी विक्टोरिया होस्टेल देख कर आ रहा हूँ । वहाँ मैंने बहुत से भोजनालय देखे और वे केवल स्वादोंके लिए ही इतनी अधिकतासे हैं । जबतक कि हम उन खाद्य पदार्थों पर सन्तुष्ट न होंगे जिनके ग्रहण न करनेसे ही हमारा जीवन नहीं चल सकता, तबतक चटोरे - पनकी आदन नहीं जा सकती । खाया तो के वल प्राणरक्षा और शरीररक्षाके लिए ही जाता है, और जानवर भी इसी लिए खाते हैं, फिर क्या कारण है कि वे इतने चटोरे नहीं दिखलाई देते ? बस, यही कि वे अपने जीभके गुलाम नहीं । उनकी जीभ उनके काबू में है । चोरी न करना । पाँचवी बात है चोरी न करनेकी । यह वह चोरी नहीं कि किसीका माल हड़प बैठें। किसी Jain Education International एक ऐसी वस्तुको लेना भी, जिसकी अपन पास तत्काल कोई आवश्यकता नहीं और यदि वह दूसरे के पास रहे तो उसका बहुत कुछ कष्ट दूर हो जाय, एक प्रकारकी चोरी ही है। प्रकृति माता इतनी चीजें पैदा करती हैं कि यदि प्रत्येक आदमी अपनी आवश्यकतासे अधिक उन्हें न ले; . तो संसारमें गरीबी रह न जाय, और कोई भी आदमी भूख न मरे । और जब तक यह असमानता दूर न होगी तब तक मुझे कहना पड़ता है, कि हम सब चोर हैं। मैं 'सोशियालिस्ट' नहीं हूँ और इसलिए धनवानोंको धनसे वंचित नहीं करना चाहता, परन्तु जो लोग देश के अधपेट रहनेवाले करोड़ों आदमियोंका दुख दूर करना चाहते हैं उन्हें इस सिद्धान्तअनुसार कार्य करना पड़ेगा । स्वदेशी - व्रत | छट्ठी प्रतिज्ञा है स्वदेशीकी । हर एक मनुष्यमें स्वदेशाभिमान होना चाहिए । यदि एक व्यापारी बम्बई से तुम्हारे पास इस गरज से आवे कि तुम उसे आश्रय दो, तो जब तक तुम्हारे यहाँ उसी प्रकारका व्यापारी मौजूद है तब तक उसे छोड़ कर तुम्हें बम्बई के व्यापारीकी मदद करना उचित नहीं । स्वदेशीके विषय में मेरी यही राय है । मेरा यही कहना है कि यदि तुम्हारे गाँवका नाई तुम्हारी हजामत बनाने के लिए तुम्हारे द्वार पर आता हो तो कोई कारण नहीं कि तुम उससे तो हजामत न बनवाओ और जरासी भड़कीली शान के लिए शहर से आनेवाले नाईके पास दौड़ो । तुम अपने नाईको योग्य बनाओ यदि वह पहले से योग्य नहीं है । उसमें वह बात पैदा करो जो एक शहराती नाईमें तुम देखते हो । और उसको उस समय तक, जब तक कि तुम पूरी तौरसे अपने कामके बिल्कुल अयोग्य न पा लो, हर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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