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इतिहास-प्रसंग।
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इससे उक्त 'प्रतिष्ठासारसंग्रह भी पं० चंद्र' दिया है और उन्हें जिनागमरूपी आशाधरसे पहले बन चुका है, ऐसा कह. समुद्रकी वेलातरंगोंसे धूयमान तथा समस्त नेमें कुछ संकोच नहीं होता । इसी प्रकार जगतमें विख्यात प्रगट किया है । हो सकता यह भी कहा जा सकता है कि, ' आचार- है कि ये नेमिचंद्र वे ही हों जो 'गोम्मटवृत्ति' के कर्ता वसुनन्दि श्रीअमितगति- सार' ग्रंथके कर्ता कहे जाते हैं। ऐसा होने के पीछे हुए हैं । क्योंकि उन्होंने आचार- पर उक्त श्रावकाचारका १२ वीं शताब्दिके वृत्तिके आठवें परिच्छेदमें, कायोत्सर्गके लगभग बनना और भी अधिक निश्चित हो चार भेदोंका वर्णन करते हुए, ‘त्यागो देह- जाता है। क्योंकि गोम्मटसारके कर्ता विक्रमममत्वस्य तनूत्सृतिरुदाहृता .... ...' की ११ वीं शताब्दिमें हुए हैं। इत्यादि पाँच श्लोक · उक्तं च ' रूपसे दिये
(३४) हैं और उनके अन्तमें लिखा है कि, 'उपा- अरुणमणि और अजितपुराण । सकाचारे उक्तमास्ते ' अर्थात् यह 'अरुणमणि' या 'लालमणि' नामके कथन 'उपासकाचार' का है । यह एक कवि हो गये हैं, जिन्होंने विक्रम संवत् 'उपासकाचार' ग्रन्थ श्रीअमितगति- १७१६ में · अजितपुराण' की रचना की सूरिका बनाया हुआ है जो विक्रमकी ११ है । यह पुराण उन्होंने औरंगजेब बादशाहके वीं शताब्दिमें हुए हैं । इस ग्रंथके आठवें राज्यमें, जहानाबाद नगरके पार्श्वनाथ चैत्यापरिच्छेदमें उक्त पाँचों श्लोक उसी क्रमको लयमें बनाकर समाप्त किया है । जैसा कि लिये हुए नं० १७ से ६१ तक दर्ज हैं। इस पुराणके निम्न पद्योंसे प्रगट है:'देवागमवृत्ति' प्रायः उन्हीं वसुनन्दिकी बनाई रसषयतिचंद्रे ख्यातसंवत्सरेऽस्मिन्, हुई मालूम होती है जो 'आचारवृत्ति के कर्ता नियमितसितवारे वैजयंतीदशम्याम् । हैं। इस तरहपर इन चारों ग्रंथोंमेंसे दो अजितजिनचरित्रं बोधपात्रं बुधानाम्, ग्रंथोंका अमितगति ( ११ वीं शताब्दि ) के विरचिममलवाग्मी रक्तरत्नेन तेन ॥ वाद और दो ग्रंथोंका आशाधर ( १३ वीं मुद्गले भूभुजा श्रेष्ठे राज्येऽवरंगशाहिके। शताब्दी ) के पहले बनना पाया जाता है। जहानाबादनगरे पार्श्वनाथ जिनालये।४१ इनमेंसे प्रत्येकका कर्ता वसुनन्दि 'सैद्धा- ग्रंथकर्ताने, इस ग्रंथमें, अपना परिचय न्तिक' कहलाता है । आश्चर्य नहीं कि देते हुए अपनेको काष्ठासंघके माथुर गच्छाये चारों ग्रंथ एक ही वसुनन्दिके बनाये हुए हों। न्तर्गत पुष्करगणका अनुयायी प्रगट किया मेरी रायमें ये सब ग्रंथ विक्रमकी १२ वी है और अपनी वंश-परम्परा लोहाचार्यसे शताब्दीके लगभगके बने हुए हैं । श्रावका- प्रारंभ की है। लोहाचार्यके वंशमें अनेक मुनिचारमें वसुनन्दिने अपने गुरुका नाम · नेमि- योंके पश्चात् धर्मसेन नामके गुरु हुए । फिर
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