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________________ १८८ जैनहितैषी आता कि उनकी पुत्री जो विवाहके कुछ ही लाद दिया जाता है ? और न जाने कितनी महीने पीछे विधवा हो गई है जन्म कैसे बातें हैं । कहाँ तक कोई लिखे किन्तु एक व्यतीत करेगी ? खैर । यदि समाजको जीवित नये सुधारका जिकर किये बिना नहीं रहा रहना ही नहीं है, यदि उसे अपने स्त्री- जाता । राजपूतानेको ही इस सुधारके प्रचसमाजके चरित्रकी पवित्रता स्थिर रखनी ही लित करनेका सौभाग्य प्राप्त है । आजकल नहीं है तो चाहे जो करे; किन्तु यदि यह कोई युवा विवाह करना चाहे तो उसे पहले इच्छा है कि संसारसे नाम न मिटे तो उसे कन्याके पिताको कुछ हजार रुपये भेंट देना इस प्रश्नको उठाना पड़ेगा और हजार बाधा- पड़ते हैं । वैसे तो कन्याका पिता अपने ओंके होनेपर भी कार्य करना ही होगा। जामाताके घरका पानी भी नहीं पीता; शिक्षाप्रचार, विधवाश्रमोंका खुलना, ब्रह्म- किन्तु रुपया कुछ पानी थोड़े ही है । धनचर्यकी प्रतिज्ञायें इत्यादि प्रयत्न कदापि वानोंकी बन आती है । खूब पसन्द सफल नहीं हो सकते । प्रकृतिके विरुद्ध करके बाजारके भावसे अधिक रुपयाकार्य करनेकी सामर्थ्य लाखोंमें एक दोसे देते हैं और चाहे कितनी भी उमर अधिकमें नहीं हो सकती । स्त्रियोंसे यह हो, चाहे पाँचवी बार विवाह करते हों, झट आशा करना मूर्खता है । बहुत अच्छा पट विवाह हो जाता है। गरीब लड़का पढ़ होता कि इसकी आवश्यकता न पड़ती; लिखकर होशियार हुआ। शायद २५-३० किन्तु अब कोई उपाय नहीं। रुपये महीना कमाने लगा। वह कन्याके बूढोंके विवाह भी रोकने होंगे। इससे पिताकी भेटके रुपये कहाँसे लावे ? कहीं विधवाओंकी संख्या अवश्य घटेगी और . ५-७ वर्षमें कुछ रुपया एकत्रित किया कमसे कम ऐसे हास्यमय दृश्य देखनेको तो न . " और कहीं बातचीत जमाई कि कोई धनाढ्य - मिलेंगे कि सफेद बालोंको रँगकर लाठीके , 'ने अधिक रुपया देकर सौदा बिगाड़ दिया - सहारे बूढेराम वर बन कर १० वर्षकी रह है बालिकाका पाणिग्रहण कर रहे हैं। दो महीने इनके अतिरिक्त और भी बहुतसे कारण पीछे उनकी मृत्युसमाचार सनकर दःखसे इस क्षतिके निकलेंगे और इससे बचने के आँसू तो न बहाने पड़ेंगे ! . लिए प्रत्येक कारणका नाश करनेका दृढ़ प्रयत्न करना होगा । बहुत सी सैकड़ों वर्षोंसे विवाहके मार्गमें इस जातिमें न जाने चली आनेवाली रीतियोंको उठा देना पड़ेगा। और कितनी कठिनाइयाँ हैं । इनमें इतना सधारके कार्यमें बहत बड़ा विरोध भी होगा। अधिक व्यय करनेकी क्या आवश्यकता है? लोग ऐसा भी कहेंगे कि यह कार्य जैनसब बिरादरीको मिठाई खिलानेका भार क्यों धर्मके सिद्धान्तोंके अनुकूल नहीं। जो यह कार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522825
Book TitleJain Hiteshi 1916 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1916
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size10 MB
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