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________________ जैनाहतैपी समुल्लासकी विस्तृत समालोचना की है और स्वामीजीकी भद्दी भूलों, भ्रमपूर्ण विचारों, असभ्य लेखों और जैनधर्मसम्बन्धी शोचनीय अज्ञानताओंका दिग्दर्शन कराया है । इस विषयमें अब तक जितनी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, हमारी समझमें यह उन सबसे अच्छी है । लेखकको अपने प्रयत्नमें यथेष्ट सफलता हुई है । लेखकने असभ्य आक्रमणोंका उत्तर देते समय भी अपनी सभ्यता और भाषासमितिकी बहुत कुछ रक्षा की है और यह इस पुस्तककी प्रधान विशेषता है। इस पुस्तकके पढ़नेके पहले हम नहीं जानते थे कि स्वामी दयानन्दजी जैसे विद्वानके ग्रन्थमें जैनधर्मके सम्बन्धमें इतनी अधिक अज्ञानता भरी होगी और स्वामीजी मामूली श्लोकों और प्राकृत गाथाओंका अर्थ समझनेमें भी इतने कमजोर होंगे। विवेकविलास नामक ग्रन्थमें दिगम्बर श्वेताम्बर सम्पदायका भेद बतलाते हुए कहा है न भुक्ते केवली न स्त्रीमोक्षमेति दिगम्बराः। प्राहुरेषामयं भेदो महान् श्वेताम्बरैः सह ॥ इसका अर्थ यह है कि दिगम्बर केवलीका कवलाहार करना और स्त्रीका मोक्ष होना नहीं मानते हैं। बस, श्वेताम्बरोंके साथ उनका यही बड़ा भारी भेद है । परन्तु स्वामीजी इसका यह अपूर्व अर्थ । करते हैं-" दिगंबरोंका श्वेताम्बरोंके साथ इतना ही भेद है कि दिगम्बर लोग स्त्रीसंसर्ग नहीं करते और श्वेताम्बर करते हैं। इत्यादि बातोंसे मोक्षको प्राप्त होते हैं । यह इनके साधुओंका भेद है।” ( सत्यार्थप्रकाश पृ. ४७७ )। पुस्तकमें स्वामीजीके पाण्डित्यके इस तरहके बीसों उदाहरण दिये हैं। कुछ उदाहरण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522809
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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