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________________ जैनजातियों में पारस्परिक विवाह । ६३७ जातिमें योग्य शिक्षित वरके न मिलने से उसे किसी मूर्खके गले बाँध दी ! बस, उसकी जिन्दगी खराब हो गई । ऊँचे दर्जेकी शिक्षा पाये हुए युवकोंकी भी मिट्टी इसी तरह पलीद होती है। वे या तो किसी अशिक्षिता के गलग्रह बन जानेसे जीवनभर दुखी रहते हैं या केवल इसी कारण - शिक्षिता स्त्रीके प्राप्त करनेकी इच्छासे – आर्यसमाज आदि इतर समाजोंके अनुयायी हो जाते हैं । इन बेजोड़ ब्याहोंके फलसे हमारे गृहस्थाश्रम के सुखका सर्वथा लोप हो रहा है-न स्त्रियाँ सुखी हैं और न पुरुष । यदि विवाहका क्षेत्र विस्तृत हो जायगा तो बहुत लाभ होगा - इच्छित वर और कन्याओंकी प्राप्तिका मार्ग बहुत कुछ सुगम हो जायगा । 1 ६ दुराचार की वृद्धि - जिन जातियोंमें कन्यायें थोड़ी हैं उनमें कुँआरे पुरुष अधिक रहते हैं और जिनमें कन्यायें अधिक हैं उनमें कुँआरी अधिक रहता हैं । इन दोनोंका फल यह होता है कि समाज में दुराचारकी वृद्धि होती है । बाल्यविवाह, अनमेलविवाह आदिके कारण भी दुराचारकी वृद्धि होती है और सबका मूल, विवाहक्षेत्रकी संकीर्णता है । यह विस्तृत हो जायगा तो जिस दुराचारको लोग प्रकृतिपर विजय न पा सकनेके कारण. लाचार होकर करते हैं, वह बहुत कुछ कम होजायगा । इन - ७ उत्तम सन्तान न होना या निःसन्तान होना — विवाह - क्षेत्रकी संकीर्णताका सबसे बड़ा भयंकर परिणाम यह हुआ है कि हमारी सन्तान दिन पर दिन दुर्बल और अल्पजीवी होती जाती है । ५ * Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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