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________________ ६३४ जैनहितैषी कि पारस्परिक विवाहसम्बन्ध लाभकारी है। यदि इससे किसी एक जातिको कुछ हानि भी हो-और आरंभमें ऐसा होना कई अंशोंमें संभव भी है-तो सारे जैनसमाजके लाभके खयालसे उसको दर गुजर करना होगा। २ कन्याविक्रय और वरविक्रय--जैनोंकी बहुतसी जातियोंमें कन्याविक्रय होता है और बहुतसी जातियोंमें वरविक्रय होता है । इसके लिए बहुत उपदेश दिये जाते हैं, पाप आदिके डर बतलाये जाते हैं, पंचायतियोंमें नियम बनाये जाते हैं, पर फल कुछ नहीं होता । हो भी नहीं सकता । क्योंकि इसका कारण कुछ और ही है। जिन जातियोंमें लड़कियोंकी संख्या कम है उनमें कन्यायें और जिनमें लड़कोंकी संख्या कम है उनमें वर विकते हैं । कोई अपने लड़के लड़कियोंको ब्रह्मचारी तो रखना नहीं चाहता है, तब उनके ब्याहके लिए औरोंके साथ प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है-करनी ही चाहिए; क्योंकि चीज़ कम और ग्राहक ज्यादा । सब ही यह चाहते हैं कि रुपया चाहे जितना लग जावे, पर मेरा लड़का या लड़की अविवाहित न रहे । उधर लड़की या लड़कावाला जब देखता है कि ग्राहक अधिक हैं तब वह अधिक रुपया कमानेकी इच्छा करने लगता है। यदि विवाहका क्षेत्र बढ़ जायगा-सब जातियोंमें सम्बन्ध होने लगेगा, तो कन्याविक्रय और वरविक्रय ये दोनों दुष्प्रथायें बहुत कुछ कम हो जायेंगी। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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