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पर्युषणपर्व अथवा पवित्र जीवनका परिचय।
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अमुक स्थलमें बैठेंगे तभी विभाव-विरक्तता होगी, अमुक जातिके वस्त्र पहरेंगे तभी स्वभावका स्मरण होगा, अमुक मंत्र या पाठका जाप करेंगे, तभी स्वभावकी रमणता होगी, अमुक प्रकारकी क्रिया करेंगे तभी आत्मलीनता होगी- इस तरहका न कोई नियम है और न हो सकता है । क्योंकि स्थल, वस्त्र, पाठ, क्रिया ये सब स्वयं भी विभाव हैं-जंड हैं । जो पन्थ या सम्प्रदाय सबसे श्रेष्ठ होनेका दावा करता हो उसीकी आज्ञाके अनुसार वस्त्र पहने जावें, उसीकी बतलाई हुई उग्र तपश्चर्या की जावे और उसीके पवित्र शास्त्र जिह्वाग्र कर लिये जावें, तो भी ऐसा हो सकता है कि विभाव वृत्ति न मिटे और स्वभावलीनता न हो । क्योंकि साधनोंमें स्वयं कोई शक्ति नहीं है-वे आत्माभिमुखीकरणके निमित्त मात्र हैं। यह सच है कि साधन किसी न किसी अच्छे आशयसे बतलाये जाते हैं; परन्तु वे जड़ शरीरके लिए नहीं किन्तु आत्माके लिए हैं
और उनका उपयोग आत्माभिमुख वृत्तिसे जितने परिमाणमें किया जायगा उतने ही परिमाणमें उनसे आत्मस्मरण और आत्मस्थैर्यका होना संभव है। - उपर जो तीन सादे सिद्धान्त बतलाये गये हैं वे सादे होने पर भी बहुत गहन हैं, बारबार विचार करने योग्य हैं और हृदयपट पर लिख रखने योग्य हैं । स्वभावमें रमण करना मनुष्यके लिए यद्यपि चिरकालीन विभावपरिचयके कारण कठिन है, परन्तु अशक्य नहीं है-बल्कि स्वभावरमणता, धार्मिक जीवन, पवित्र जीवन या दैवी जीवनको हमने जितना समझ रक्खा है उतना कठिन भी नहीं है।
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