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________________ ५९८ जैनहितैषी ( कमलोंको खिलानेवाली और कविके पक्षमें पद्मपुराणको रचनेवाली ), रविषेणकी काव्यमयी प्यारी मूर्ति इस लोकमें प्रतिदिन परिवर्तित होती रहती है ( सूर्य प्रतिदिन परिवर्तन करता रहता है और कविके काव्यकी प्रतिदिन आवृत्तियाँ होती रहती हैं )। उन्हीं रविषेणका वरांगचरित नामका काव्य वारांगनाके समान किसको स्वानुभवगोचर गहरा अनुराग उत्पन्न नहीं करता ? " भास्करमें इसका अर्थ इस प्रकार किया गया है-" प्रतिदिन काव्यशोभा अथवा लक्ष्मीको बढानेवाली संसारमें काव्यमूर्तिकी सी सूर्यप्रियाकी नाई वरांग शब्दको चरितार्थ करनेवाली वरांगनाकी ऐसी कविता भला किसके मनमें सुभग अनुराग उत्पन्न नहीं करती ।" सावधान पाठक ! कहीं बींचमें ठहर न जाइए, बराबर एक स्वासमें पूरा पाठ पढ़ जाइए ! रहा अर्थ, सो उसकी तो आप चिन्ता ही मत कीजिए, इन वाक्योंपरसे उसका समझना तो छद्मस्थोंकी बुद्धिसे अतीत - हरिवंशपुराणके मंगलाचरणादिकी प्रत्येक पंक्ति अशुद्धियोंसे भरी हुई है। इतना स्थान नहीं कि उन सब अशुद्धियोंकी अलोचना की जाय-पाठकोंको वह रुचिकर भी नहीं हो सकती । मालम नहीं सेठजी ऐसे अनधिकारी लोगोंके हाथसे जैनग्रन्थोंके अभिप्रायोंकी यह दुर्दशा क्यों कराते हैं ? चन्द्रगिरिका परिचय। _ यह लेख छह पेजका है। इसमें श्रवणबेलगुलके चन्द्रगिरि नामक पर्वतका और उसपरके मन्दिर आदिका वर्णन है। संभवतः यह राइस साहबके अँगरेजी ग्रन्थ ' इनस्क्रप्शन एट् श्रवणबेल Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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