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________________ जेनहितैषी - ! " क्या तू आज खानेका कल खा सकेगा ? तू पैसेवाला है और सुखसे खाता-पीता है, इसलिए समझता नहीं है कि तेरा नौकर गरीब है और पैसेके बिना उस बेचारेको अनेक कष्ट सहना पड़ते हैं; इस दशा में भी तू उसकी चढ़ी हुई तनख्वाह कल देने को कहता है !" इससे अधिक और क्या कहूँ ? दुनियामें ऐसा एक भी पाप नहीं जिसे मैं न कर सकूँ । अपनी इस स्थितिके - देखते मेरी उन लोगोंपर भी श्रद्धा नहीं होती कि जो पवित्रपनेका अभिमान करते हैं। मुझे यदि कोई पापी कहे तो मैं जरा भी शरमिन्दा नहीं होता । और सच भी है कि जो मनुष्य हृदयमें रहनेवाले लाखों पापोंको हमेशा ही गिना करता है, उसे यदि कोई पापी कहकर पुकारे तो उसके लिए बुरा क्यों माना जाय ? अरे लोगो, ज़रा आँखें खोलकर देखो कि जिसे तुम इतना मान देते हो, वह कैसा पापी है। तुम उस पापीको पापरूपमें देखतक नहीं सकते, विचार तक नहीं सकते इससे मेरा पश्चात्ताप, मेरा कष्ट बहुत ही उग्ररूप है धारण कर उठता 1 ५८८ · परन्तु परमात्माकी मुझपर कृपा है। इसलिए जब मैं दूसरी दृष्टि से देखता हूँ तो मुझे जान पड़ता है कि मेरे समान सुखी मनुष्य थोड़े होंगे । ये पापरूपी नरकके कीड़े - जो आँख, कान, और जबानद्वारा उभराते रहते हैं तथा बाहर आते रहते हैं - मेरा हित ही करते हैं । एक ओर जैसे मैं नरकका सा अनुभव करता हूँ उसी तरह दूसरी ओर स्वर्गका सा अनुभव भी करता रहता हूँ । जो शरीर बहुत समयसे रोगवश हो रहा है और अनेक तरहकी व्याधियों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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