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________________ जैनहितैषी - | 1 वासनाओंकी तृप्तिकी ओर झुकती है तब वह प्रवृत्ति पापसे ही पैदा होती है । जब कभी दूसरोंकी धन-सम्पत्ति देखकर क्षणभरके लिए भी मेरे मन में यह विचार आता है कि इसकी धन-दौलत यदि मुझे मिल जाय तो कितना अच्छा हो, तब मैं अपनेको सच - मुच ही चोर समझता हूँ | जीवन जब संकटमें आ पड़ता है और मन निर्बल हो जाता है तब झूठ बोलनेमें आ वह प्रत्यक्ष असत्य न भी हो तो भी अपने - ऊपर बुरा असर उत्पन्न करनेवाला हो जाता है । यह पाप है । इसी तरह मैं वास्तवमें जितना हूँ उससे अपनेको थोड़ा भी उच्च समझ, इसका नाम अभिमान है । हृदयमें दूसरोंकी अपेक्षा मैं अपनेको अधिक पसन्द करूँ और दूसरोंके सुखकी अपेक्षा अपने सुखके लिए अधिक प्रयत्न करूँ, इसमें स्वार्थपनेका अधिक पाप है । इस प्रकार मैं अपने हृदयमें छोटे-मोटे अनेक पापोंको देखता रहता हूँ, जो विष्ठाके कीड़ोंकी तरह मेरे हृदयमें निरन्तर हिरते-फिरते रहते हैं । मैंने अपने अन्तिम चबालीस वर्षोंमें ऐसे कितने पाप किये हैं यदि मैं उनकी गिननी करने बैठूं तो उनकी संख्या करोड़ोंपर जा पहुँचेगी । मुझमें अन्तरात्माका बलवान् प्रकाश इतना व्याप्त हो रहा है कि उसमें सूक्ष्मसे सूक्ष्म पाप भी दृष्टिमें पड़ बिना नहीं रहता । यह पापका भान मुझे असह्य कष्ट पहुँचाता रहता है । मैं अपने मनकी स्थितिका इतना बलवान् साक्षी हूँ कि मानों मेरा जन्म इन पापोंकी गिनती करनेके लिए ही हुआ है, ऐसा मुझे जान पड़ता है । सबेरेसे साँझतक मैं इन्हीं पापको गिना 1 ५८६ Jain Education International For Personal & Private Use Only जाता है और चाहें सामनेवाले के मनके www.jainelibrary.org
SR No.522808
Book TitleJain Hiteshi 1914 Ank 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages160
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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