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________________ ५८३ जीवनका विचित्र परिवर्तन। " तू मुझे जानता है ? अरे नट, मैं कितना बड़ा आदमी हूँ यह तू समझता है ?" ___"हाँ, मैं तुझे बहुत अच्छी तरह जानता हूँ । डरपोंक, दुर्बल, कलारहित और लक्ष्मीका दास, तू एक बनियेका बेटा है। मेरी बेटी अनेक कलाओंमें कुशल है, शरीर और मनको बुद्धिके शासनमें नचानेकी विलक्षण शक्ति रखती है और जगतके मर्कटरूप ( बन्दररूप) मनोंको अपने पैरोंकी अंगुलियोंके पोरों पर नृत्य कराया करती है। उसका पाणिग्रहण करनेकी तुझमें जरा भी योग्यता नहीं है, इस बातको मैं भलीभाँति जानता हूँ।" ___ “अरे भले मानुस, तू भूलता है। तेरी मति केवल नृत्य करना ही जानती है। उसमें स्थिरताका और गहरी समझबूझका लेश भी नहीं है। इसी कारण तू मेरी. अवहेलना करके और मेरी नम्रतायुक्त याचनाका तिरस्कार करके अपना और अपने कुटुम्बका द्रोह कर रहा है। क्या तू यह नहीं जानता है कि यदि तू अपनी सुन्दरीकन्याका करकमल मुझे अर्पण कर देगा, तो वह करोड़ों-अब्जोंकी ऋद्धिकी रानी बन जायगी, गुणोंका मूल्य न समझनेवाले लोगोंको प्रसन्न करनेके लिए प्राणोंकी बाजी लगाकर जो तू तरह तरहके शारीरिक खेल दिखलाया करता है, उनसे तुझे सदासे लिए छुट्टी मिल जायगी और एक उच्चकुलसे सम्बन्ध हो जानेके कारण तू अपनी असाधारण उन्नति कर सकेगा ?" __“नादान लड़के, तू फूटे चश्मेसे देखता है और झूठी तराजूसे तौलता है! क्या मैंने अपनी पुत्रीको इसी लिए जन्म दिया है कि उसके द्वारा मैं धनाढ्य बनूँ और जिसे लोग 'प्रतिष्ठा' कहते हैं उस नाम मात्रकी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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