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________________ 'रजिस्ट्रीशुदा.' महासभाके मुखपत्रके लेखोंसे उस समाजकी अवस्थाका अनुमान करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। यह दोष उनका है जो दूसरोंको इस प्रकारके अनुमान करनेका मौका दे रहे हैं और हम तो कहेंगे कि जैनगजटके द्वारा हमारे समाजका जो रूप प्रगट हो रहा है, वह भले ही उसका वास्तविक रूप न हो-एक अंश विशेषका ही वह नमूना हो; परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उस * रूपके आगे उसका प्रतिपक्षी रूप ( वह कितना ही अच्छा क्यों न हो) बहुत ही कमजोर है। अवश्य ही वह काम कर रहा है, पर उसमें इतना उत्साह, ऐक्यबल और अध्यवसाय नहीं है कि लोगोंको जैनसमाजके उस रूपकी कल्पना न होने दे जो जैनमहासभा और उसके मुखपत्रसे हो रही है। हम यह नहीं चाहते कि जैनगजटके वर्तमान ले खोंके समान लेख प्रकाशित ही न हों, अथवा जैनगजटका निकलना ही बन्द हो जाय, नहीं, हम अभी जैनसमाजमें ऐसे पत्रों और लेखोंकी एक अपेक्षासे बहुत आवश्यकता समझ रहे हैं; परन्तु महासभाके मुखपत्रमें इस प्रकारके लेखोंका प्रकाशित होना सारे जैनसमाजके लिए कलङ्ककी बात समझते हैं और इसी लिए हमें दुःख होता है। इस समय उसके लेख महासभाके उद्देश्योंसे बिलकुल विरुद्ध एकपक्षीय और पारस्परिक द्वेषोंकी वृद्धि करनेवाले होते हैं । जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है, हम उनके विरुद्धमें लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं देखते हैं; परन्तु महासभाके मेम्बरोंका और दूसरे सज्जन हितैषियोंका ध्यान इस ओर आकर्षित किये बिना हमसे नहीं रहा जाता। क्या महासभाका और उसके दो चार कार्यकर्ताओंका यह एकहत्थी' 'एकपक्षीय' शासनका चाबुक समूचे जैन समाजकी पीठ पर निरन्तर ही पड़ता रहेगा ? क्या इससे बचनेका कोई उपाय नहीं है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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