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________________ ६३० डे आन्दोलन करनेवाले जैनसमाजमें दो चार कर्मवीर भी ऐसे नहीं निकलते, जो इन २० हजार भाईयोंको जैनधर्मकी पवित्र छायाके नीचे लाकर खडे कर देवें । आर्यसमाज और जैनसमाजकी वर्तमान अवस्थाका अन्तर इन्हीं दो उदाहरणोंसे मालूम किया जा सकता है। ' ग्रन्थपरीक्षा' के विषय में कुछ निवेदन । पिछले कई अंकोंसे बाबू जुगलकिशोर जीकी लिखी हुई ' ग्रन्थपरीक्षा' नामक लेखमाला निकल रही है । अबतक इसमें कुन्दकुन्द - श्रावकाचार, उमास्वामिश्रावकाचार और जिनसेन त्रिवर्णाचार नामक तीन ग्रन्थोंकी विस्तृत समालोचना हो चुकी है । हमको आशा है कि हमारे शिक्षित पाठकोंने इन लेखोंको ध्यान पूर्वक बाँचा होगा । जिन महाशयोंने किसी कारणसे न बाँच पाया हो, हम सिफारिश करते हैं कि वे थोडासा समय निकालकर इन्हें अवश्य बाँच डालें। जैनसाहित्य में शायद यह लेखमाला सबसे पहली समझी जायगी जिसमें धर्मकी दुर्लभ्य मुद्रासे अङ्कित ग्रन्थोंकी इस तरह स्वाधीनतापूर्वक जाँच की गई हो । जिस समाज में धर्मशास्त्र मात्रकी सीमा के बाहर एक शब्दका उच्चारण करना भी बड़े से बड़ा अपराध गिना जाता है, उस समाजके साहित्य में इस प्रकार के लेखोंका प्रकट होना साधारण बात नहीं। यह लेखमाला उस समयकी और उस साहित्यकी पूर्व सूचनिका है, जिसमें नामीसे नामी ग्रन्थोंकी और नामी से नामी विद्वानोंकी रचनाकी जाँच विवेक बुद्धिकी उस कठिन कसौटी परसे की जायगी, जो कसौटी सदासे यह दुहाई देती आई है कि "पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International ܙ www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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