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________________ ५८९ युवक, मुझे खेद है कि जब तक मेरे और तुम्हारे बीच में ये बड़े बड़े विघ्नरूप किले खड़े हैं, तब तक मैं तुम्हें निराशाकी खाई में गिरने से नहीं बचा सकती । 15 एल कुमार के बदनमण्डलपर आशा के चिह्न दिखलाई देने लगे । वह आसनपर से उठ बैठा और नटपुत्री का हाथ धीरेसे अपने हाथ में लेकर बोला - " प्राणवल्लभे, (यदि इस शब्दसे सम्बोधन करनेकी तुम मुझे अनुमति दो, तो ) तुम्हारी कृपा से इन सारे विघ्नों और संशयोंके किलों को धराशायी करनेकी मुझमें शक्ति है । जातिके बन्धनको मैं इसी समय तिलांजलि देता हूँ, और अब्जोंकी सम्पत्ति पर मैं लात मारता हूँ । यद्यपि मैं इस बातको अभी निश्चित शब्दों में नहीं कह सकता हूँ कि मैं तुम्हारे काममें कितनी सहायता पहुँचा सकूँगा, तथापि इतना विश्वास इसी समय दिला सकता हूँ कि नटकला सीखने के लिए मैं इसी क्षणसे अश्रान्त परिश्रम करूँगा और हे रंभोरु, जब तक मैं इस कला में पारंगत न हो जाऊँगा तेरा सुयोग्य सहायक और भागीदार न बन जाऊँगा, तब तक तेरे सम्मुख ' प्रेम ' या ' विवाह' का एक शब्द भी कभी उच्चारण न करूँगा ।" युवाके एक एक शब्द से नटकन्याका हृदय उद्वेलित होने लगा । उसे उसके सच्चे प्रेम, प्रामाणिक निष्ठा, गहरी प्रतिज्ञा और अमूल्य आत्मबलिकी ओर बहुत ही आदरभाव उत्पन्न हुआ और इस आदर भावमें उस प्रेमी के प्रस्फुटित यौवन और सौन्दर्यने तो और भी वृद्धि की जिससे कि वह तत्काल ही प्रेमरूपमें परिवर्तित हो गया । तथापि स्त्री जातिकी स्वाभाविक लज्जाशीलता के कारण उसने अपना यह कोमल मनोभाव दबा रखा; उसके मुँहसे एक भी शब्द न निकला - वह चुप चाप नीचे की ओर देखती हुई स्थिर हो रही । एलाकुमार उसके मनो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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