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________________ तक जाने देनेमें कोई हानि नहीं देखता । तथापि यदि तेरी इच्छा ही है, तो तू खुशीसे उसके हृदय पर अधिकार करनेका प्रयत्न कर देख।" ____ " नटराज, तुमने मुझ पर बड़ी भारी कृपा की ! यद्यपि तुम्हारे शब्द बहुत ही गर्वसे भरे हुए हैं तथापि वास्तवमें वे गंभीराशय हैं और सच्चे हृदयसे निकले हुए हैं । इस समय तो इन शब्दोंने मुझे मृत्युमुखमें जानेसे बचा लिया है । अच्छा, तो मैं तुम्हारी आज्ञासे उस हृदयेश्वरीसे जाकर मिलता हूँ और अपने भाग्यकी परीक्षा करता हूँ।" वणिक्पुत्रका नाम एलाकुमार है । वह नटको प्रणाम करके अपने सुन्दर कोठेमेंसे बाहर निकला और उससे कहता गया कि जब तक मैं वापस न आजाऊँ तब तक तुम. यहीं ठहरना। ऊपर लिखी हुई बातचीतसे पाठक समझ ही गये होंगे कि यह युवा वणिक्पुत्र नटकी लड़की पर मोहित हो गया है और हर तरहके कष्ट सहन करके उसे अपनी पत्नी बनानेके लिए आतुर हो रहा है । अभी कुछ ही दिन पहले नटने अपने आश्चर्यजनक खेल दिखलाये थे। उस. समय उसकी कन्या भी साथमें थी । श्रेष्ठिपुत्रकी दृष्टि सारे खेलोंकी अवहेलना करके नटकन्यापर जा अटकी और उसका परिणाम यह हुआ कि उसने अपना तनमनधन उस सुन्दरी प्रतिमा पर न्योछावर कर दिया । उसने मनही मन निश्चय किया कि यदि यह मनोमोहिनी न मिलेगी तो इस नीरस शुष्क जीवनको बलपूर्वक समाप्त कर दूंगा। उसने अपना यह विचार अपने पिताके सम्मुख भी स्पष्ट शब्दोंमें प्रकट कर दिया । उसका पिता इभ्यश्रेष्टी इलावर्धन नगरका सबसे बड़ा धनी सेठ था । सेठने अपने प्यारे इकलौते पुत्रको इस अनुचित साहससे दूर रहनेके लिए बहुत कुछ समझाया, अपनी जाति और प्रतिष्ठाका स्मरण दिलाया और यह भी कहा कि इस नटकन्यासे भी अधिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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