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________________ पुत्रियोंको उनके लिए उपयोगी' हो, ऐसा वर पसन्द करनेका अधिकार दे रक्खा है । रूपको और धनको नहीं किन्तु कलाकौशल और बलको ही हमारी पुत्री पसन्द कर सकती है। अरे नादान वशिपुत्र, मुझे तेरी दशा पर बहुत दया आती है। तू मेरी पुत्रीके लिए तड़प तडप कर आधा तो हो चुका है और आगे क्या होगा, सो भी मेरी आँखोंमें झलक रहा है। परन्तु क्या करूँ, तुझ पर दया करके मैं अपनी पुत्रीके जीवनभरके सुखको मिट्टीमें नहीं मिला सकता। मैं उसके सुखी बननेके स्वाभाविक अधिकारके मार्गमें कण्टक नहीं बन सकता। हाँ, तुझपर दया करके-किसी लोभके वश नहीं-मैं इतना कर सकता हूँ कि तुझे...." .. ___ "क्या तू मेरी हृदयेश्वरीसे मेरी पहचान करा देगा? यह बतलाकर कि मेरे साथ विवाह करके वह कितनी सुखी हो सकेगा क्या तू मेरी ओर उसका चित्त आकर्षित करनेकी कृपा करेगा ? नटराज, मैं तेरे इस उपकारको जीवनभर नहीं भूलूंगा।" ___" अनुभवहीन लडके, इतना उतावला मत हो! इन हवाई किलोंके बनानेमें यदि कहीं तेरी कल्पनाशक्ति नीचे गिरकर चूर हो गई तो तेरा जीवन और भी अधिक दुःखमय बन जावेगा । मैं तुझे अपनी पुत्रीके पास तक जानेकी छुट्टी देता हूँ; और यह केवल तुझ पर दया करके-तेरे प्राणोंके बचानेके लिए देता हूँ। परन्तुं सावधान ! कहीं इससे तू बड़ी बड़ी आशायें मत बाँध लेना । क्योंकि वह भी एक आत्माभिमानिनी और सुचतुरा कन्या है और ऐसी मूर्ख नहीं है कि अपने भागीदारकी पसन्दगी करनेमें किसी तरह ठगाई जासके । मुझे इस बात पर जरा भी विश्वास नहीं है कि तेरी लक्ष्मी और सौन्दर्यके - तेजमें वह चकचौंधा जायगी और इसी कारण मैं तुझे उसके समीप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522798
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size7 MB
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