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________________ अन्तिम श्लोकका उत्तरार्ध दोनों एक हैं। सिर्फ प्रयच्छन्ति ' की जगहं यहाँ 'प्रयच्छन्तु ' बनाया गया है। * . ... " (१) ॐ विश्वेभ्यो देवेभ्य इदमासनं स्वाहा. (२) ॐ अमुकगोत्रेभ्यः पितापितामहप्रपितामहेभ्यः सपत्नीकेभ्य इदमासनं स्वधा. (३) ॐ विश्वेदेवानामावाहयिष्ये, (४) ॐ आवाहय. (५) ॐ अग्नौकरणमहं करिष्ये (६) ॐ कुरुष्व. (७) ॐ अग्नयेकव्यवाहनाय स्वाहा. (८) ॐ सोमा यपितृमतेस्वाहा. (९) आपोहीष्टा मयो भुवः (१०) ॐ पृथिवीते पात्रं द्यौरपिधानं ब्राह्मणस्य मुखे अमृते अमृतं जुहोमि स्वाहा. (११) तिलोसि सोमदेवत्यो गोसवोदेवनिर्मितः । प्रत्नमद्भिः पृक्तः स्वधया पितँलोकान्यणाहि नः स्वाहा ।” ये सब हिन्दुओंके मंत्र हैं । और गारुड या मिताक्षरादि हिन्दू ग्रंथोंसे उठाकर रक्खे गये है । इस प्रकार यह श्राद्धका सारा प्रकरण हिंदूधर्मसे लिया गया है। इतने पर भी त्रिवर्णाचारका कर्ता लिखता है कि मैं 'उपासकाध्ययन ' में कही हुई श्राद्धकी विधिको वर्णन करता हूँ। यथाः "गणाधीशं श्रुतस्कंधमपि नत्वा त्रिशुद्धितः । श्रीमच्छ्राद्धविधिं वक्ष्ये श्रावकाध्ययनोदिताम् ॥" यह सब लोगोंको धोखा दिया गया है । वास्तवमें, तर्पणकी तरह, श्राद्धका यह सब कथन जैनधर्मके विरुद्ध है । जैनधर्मसे इसका कुछ सम्बन्ध नहीं है । जैन सिद्धान्तके अनुसार ब्राह्मणोंको खिलाया हुआ भोजन या दिया हुआ अन्नादिक कदापि पितरोंके पास नहीं पहुँच सकता । और न ऐसा करनेसे देव पितरोंकी कोई तृप्ति होती है। ६-सुपारी खानेकी सजा । जिनसेन त्रिवर्णाचारके ९ वें पर्वमें लिखा है कि, जो कोई मनुष्य पानको मुखमें न रखकर, अर्थात् पानसे अलग, सुपारी खाता है वह सात जन्म तक दरिद्री होता हैं और अन्त समयमें ( मरते वक्त ) उनको जिनेंद्र देवका स्मरण नहीं होता । यथाः Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522797
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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