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अर्थात्-पितरोंकी प्रीति प्राप्त करनेके अभिलाषीको चाहिए कि वह अन्नादिक-या जलसे अथवा दूध और मूल फलोंसे नित्य श्राद्ध करे। इससे प्रगट है कि पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध किया जाता है और पितरगण उससे खुश होते हैं । यह श्लोक मनुस्मृतिके तीसरे अध्यायसे उठाकर रक्खा गया है और इसका नम्बर वहाँ ८२ है।
" अप्येकमाशयेद्विप्रं पितृयज्ञार्थसिद्धये । अदेवं नास्ति चेदन्यो भोक्ता भोज्यभ थापि वा ॥ ६॥" आयुद्धत्य यथाशक्ति किचिदन्नं यथाविधि । पितृभ्योऽथ मनुष्येभ्यो दद्यादहरहद्विंजे ॥ ७ ॥
पितृभ्य इदमित्युक्त्वा स्वधावाच्यं च कारयेत् ॥ ८ ॥ (पूर्वार्ध)" ये सब वाक्य कात्यायन स्मृति ( १३ वें खंड ) के हैं। वहींसे उठाकर त्रिवर्णाचारमें रक्खे गये हैं। इनमें लिखा है कि यदि कोई दूसरा ब्राह्मण भोजन करनेवाला न मिले अथवा भोजनकी सामग्री अधिक न हो, तो पितृ यज्ञकी सिद्धिके लिए कमसे कम एक ही ब्राह्मणको भोजन करादेना चाहिए । और यदि इतना भी न हो सके, तो कुछ थोडासा अन्न पितरादिकोंके वास्ते ब्राह्मणको जरूर देदेना चाहिए पितरोंके लिए जो दिया जाय उसके साथमें 'पितृभ्यः इदं स्वधा, यह मंत्र बोलना चाहिए।
“ अन्वष्टकासु वृद्धौच सिद्धक्षेत्रे क्षयेऽहनि ।
मातुः श्राद्धं पृथकुर्यादन्यत्र पतिना सह ॥" अर्थात्-कन्वष्टका, वृद्धि, सिद्धक्षेत्र, क्षयाह, इन श्राद्धोंमें माताका श्राद्ध अलग करना चाहिए । दूसरे अवसरों पर पतिके संग कर । यह लोक भी हिन्दूधर्मका है और 'मिताक्षरा' में इसी प्रकारसे दिया १ कात्यायनस्मृतिमें 'स्वधाकारमुदीरयेत् ' ऐसा लिखा है ? -वह्निपुराणः।
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