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________________ ५६६ परन्तु जैनियोंका ऐसा सिद्धान्त नहीं है। जैनियोंके यहाँ मरनेके पश्चातू समस्त संसारी जीव अपने अपने शुभाशुभ कर्मोके अनुसार देव, मनुष्य, नरक और तिर्थच, इन चार गतियोंमेंसे किसी न किसी गतिमें अवश्य चले जाते हैं। और अधिकसे अधिक तीन समय तक 'निराहारक' रह कर तुरन्त दूसरा शरीर धारण कर लेते हैं। इन चारों गतियोंसे अलग पितरोंकी कोई निराली गति नहीं होती, जहाँ वे बिलकुल परावलम्बी हुए असंख्यात या अनन्त कालतक पड़े रहते हों। मनुष्यगतिमें जिस तरह पर वर्तमान मनुष्य किसीके तर्पणजलको पीते नहीं फिरते उसी तरह पर कोई भी पितर किसी भी गतिमें जाकर तर्पणके जलकी इच्छासे विह्वल हुआ उसके पीछे मारा मारा नहीं फिरता। प्रत्येक गतिमें जीवोंका आहारविहार उनकी उस गति, स्थिति और देशकालके अनुसार होता है । इस तरह पर त्रिवर्णाचारका यह सब कथन जैनधर्मके विरुद्ध है और कदापि जैनियोंके आदरणीय नहीं हो सकता। अस्तु । तर्पणका यह सम्पूर्ण विषय बहुत लम्बा चौड़ा है। त्रिवर्णाचारका कर्ता इस धर्मविरुद्ध तर्पणको करते करते बहुत दूर निकल गया है। उसने तीर्थंकरों, केवलियों, गणधरों, ऋषियों, भवनवासि, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों, काली आदि देवियों, १४ कुलकरों, कुलकरोंकी स्त्रियों, तिथंकरोंके मातापिताओं, चार पीढीतक स्वमातापितादिको, तीर्थकरोंको आहार देनेवालों, तीर्थंकरोंके वंशों, १२ चक्रवर्तियों, ९ नारायणों, ९ प्रतिनारायणों, ९ बलिभद्रों, ९ नारदों, महादेवादि ११ रुद्रों, इत्यादिको, अलग अलग नाम लेकर, पानी दिया है; इतना ही नहीं, बल्कि नदियों, • १. ऋषियोंके तर्पणमें हिन्दुओंकी तरह 'पुराणाचार्य का भी तर्पण किया है। और हिन्दुओंके 'इतराचार्य' के स्थानमें 'नवीनाचार्य' का तर्पण किया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522797
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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