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सती असामान्याके आग्रहसे सिराजुद्दौला जीता हुआ छोड़ दिया गया । सती समझती थी कि वह अपने कृत कर्म पर पश्चाताप करेगा और आगे सुमार्ग चलने लगेगा । परन्तु फल इससे उलटा हुआ । वह चोट खाये हुए साँपकी तरह वदला लेनेके लिए व्याकुल हो उठा उसने एक बदमाशको बुलाकर आज्ञा दी कि यदि तू महताबचन्द्रको चौराहे पर सबके सामने समाप्त कर देगा और उसके मस्तकको चाँदी थालमें रखकर उसकी स्त्रीको भेंट कर सकेगा तो मैं तुझपर, बहुत खुश होऊँगा और तुझे मुँहमाँगा इनाम दूंगा |
ऐसा ही हुआ । उक्त भयंकर आज्ञाकी पालना उसी दिन की गई । बदमाश उस निर्दोष धनीके लोहु-लुहान मस्तकको चाँदी के थालमें रखकर उपस्थित हुआ । अपने सामने यह अकल्पित दृश्य देखकर वह भोंचकसी हो रही । क्रोध, शोक, भय, वैर आदि अनेक विकार उसके मुखमण्डल पर एक साथ क्रीडा करने लगे । उक्त विका1 रोकी प्रबलताको सती नसँभाल सकी, वह तत्काल ही अचेत होकर गिर पड़ी !
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दासियोंने बड़ी कठिनाईसे बहुत देर में उसे सचेत किया । वह उठ बैठी और बोलने चालने लगी; परन्तु पतिमरणके असह्य शोकसे उसके मस्तक यन्त्र पर बड़ी कड़ी चोट पहुँची । वह पागल हो गई बेमतलबका बेसिलसिले बकने लगी, जहाँ तहाँ दौड़ने लगी, निर्जन स्थानमें तरह तरहके दृश्य देखकर उनका वर्णन करने लगी, और रोने चिल्लाने लगी । कपड़े लत्तोंका, खानपानका शरीरका किसी भी बातका उसे भान न रहा । कभी कभी वह इस तरह बोलती है जैसे अपने पतिको बुला रही हो - मना रही हो - 'हा हा ' खा रही हो ।
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