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गया है और बतलाया है कि सांख्यदर्शन और जैनदर्शनमें बहुतही थोड़ा अन्तर है और चूँकि सांख्यवेदानुयायी है, अतएव जैन भी वेदवृक्षकी एक शाखा है। इस तरहकी और भी बीसों बातें हैं जिन्हें हमारी समझमें बहुत ही कम जैनी माननेको तैयार होंगे बल्कि मंत्री महाशय स्वयं ही उन्हें माननेसे इंकार करेंगे।
इसमें सन्देह नहीं कि इसकी भूमिकाके तुलनात्मक दार्शनिकत्व . आदि लेखोंमें प्रकट किये हुए विचार बहुत ही महत्वके और पाण्डित्य पूर्ण हैं और वे माननीय न होने पर भी आदरकी दृष्टिसे देखने योग्य हैं, तो भी एक जैनसंस्थाके द्वारा जो कि एक भाषाके साहित्यमें जैनधर्मके उन सिद्धान्तोंका परिचय करानेके लिये स्थापित हुई है जो जैनधर्मके प्राचीन आचार्योंने प्रकट किये हैं-इस प्रकारके विचारोंका प्रकाशित होना अच्छा नहीं समझा जा सकता । उक्त विचारोंको पढ़कर जैनधर्मके जिज्ञासु जैनेतर पाठकोंको यह भ्रम हो सकता है कि ये विचार जैनियोंको भी मान्य होंगे । क्यों कि यह पुस्तक जैनियोंके द्वारा प्रकाशित हुई है । पुस्तकके अन्तमें जैनधर्मकी दिगम्बर श्वेताम्बर शाखाओंके विषयमें एक परिशिष्ट लेख है। उसमें श्वेताम्बर सम्प्रदायको आधुनिक और दिगम्बर सम्प्रदायको प्राचीन सिद्ध करनेका प्रयत्न किया गया है । हमारी समझमें इसकी जरूरत न थी। हमारे अपने घरके झगडे दूसरोंके आगे प्रकट करनेसे लाभ नहीं है। जैनधर्मके सम्बन्धमें हम जैनेतर समाजोंमें जो कुछ प्रयत्न करें वह यदि हिल मिल कर अपने आपसी झगड़े भुलाकर-करें तो विशेष सफलता प्राप्त हो सकती है। मंत्री महाशयसे हमारा नम्र निवदेन यह है कि संस्थाके द्वारा जो कोई पुस्तक प्रकाशित हो, उसे आप स्वयं अच्छी तरह पढलें और उस विषयके जाननेवाले किसी दूसरे विद्वानको
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