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________________ ५२७ जब तक अस्तित्वका प्रमाण नहीं पायेंगे तब तक कभी न मानेंगे । जब अस्तित्वका प्रमाण पाजावेंगे तब मान लेंगे। प्रत्ययका या विश्वासका यही प्रकृत नियम है। जो विश्वास इससे उलटा होता है, वह भ्रान्ति है। "यद्यपि अमुक पदार्थ है, ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता है, तथापि वह हो तो हो भी सकता है " ऐसा सोचकर जो उस पदार्थके आस्तित्वकी कल्पना कर लेते हैं, वे भ्रान्त हैं । अतएव नास्तिकगण दो प्रकारके हुए। एक तो वे जो केवल ईश्वरके अस्तित्वके प्रमाणाभाववादी हैं। वे कहते हैं कि ईश्वर हो, तो हो भी सकता है । परन्तु वह ' है ' ऐसा कोई प्रमाण नहीं है। दूसरे प्रकारके नास्तिक वे हैं जो कहते हैं कि केवल ईश्वरके अस्तित्वके प्रमाणोंका ही अभाव नहीं है इस बातके भी अनेक प्रमाण हैं कि ईश्वर नहीं है। आधुनिक यूरोपके अनेक लोग इसी मतके माननेवाले हैं। एक फरासीसी लेखक कहता है-" तुम कहते हो कि ईश्वर निराकार है, किन्तु साथ ही उसे चेतनादि मानसिकवृत्तिविशिष्ट भी बतलाते हो । क्या तुमने कहीं चेतनादि मानसिक वृत्तियोंको शरीरसे जुदा देखा है ? यदि कहीं नहीं देखा, तो या तो ईश्वर साकार है अथवा उसका आस्तित्व ही नहीं है । ईश्वरको तुम साकार तो कभी मानोंगे नहीं, अतएव यही मानना पड़ेगा कि ईश्वर नहीं है।" ये दूसरे प्रकारके नास्तिक हैं। ___“ईश्वरासिद्धेः।" यदि केवल इसी सूत्र पर भार डाला जाय, तो सांख्यको प्रथम प्रकारका नास्तिक कह सकते हैं। किन्तु उसने और भी अनेक प्रमाणोंसे यह सिद्ध करनेका यत्न किया है कि ईश्वर नहीं है। यहाँ पर सांख्यप्रवचनमें ईश्वरके अनस्तित्व सम्बन्धमें जितने सूत्र हैं उन सबको एकत्र करके उनका मर्म विस्तारके साथ समझाया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522797
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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