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________________ ५२३ शोक हो रहा है, उसे भुलाकर किसी दूसरी और अपने चित्तको लगा दिया । परन्तु सांख्यकारके मतसे ये दुःखमोचनके वास्तविक उपाय नहीं हैं। क्योंकि इनके साथ उन्हीं सब दुःखोंकी अनुवृति हैवे दुःख फिर भी होंगे। सच्चा उपाय अपवर्ग या मोक्षकी प्राप्ति है। प्रकृति और पुरुषके संयोगकी उच्छित्तिको मोक्ष कहते हैं। जो सुखदुःखका भोक्ता है, सांख्य उसी आत्माको पुरुष कहता है और पुरुषसे भिन्न जगतमें जो कुछ है, वह प्रकृति है। पुरुष शरीरादिसे व्यतिरिक्त है। परन्तु दुःख शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं। ऐसा कोई दुःख नहीं है जो शरीरादिको दुःखका कारण न हो। जिन्हें मानसिक दुःख कहते हैं बाह्यपदार्थ ही उनके मूल हैं। हमारे वाक्यसे तुम अपमानित हुए । हमारा वाक्य एक प्रकृतिजन्य पदार्थ है। उसे तुमने श्रवणेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया, इस लिए तुम्हें दुःख हुआ। अतएव प्रकृतिके अतिरिक्त और कोई दुःख नहीं है। परन्तु अब प्रश्न यह है कि प्रकृतिघटित दुःखका अनुभव पुरुषको क्यों होता है ? पुरुष तो असंग है। जितनी अवस्थायें होती हैं सब शरीरकी होती हैं, पुरुषकी नहीं। सांख्यकार कहते हैं कि प्रकृतिके साथ संयोग ही पुरुषके दुःखका कारण है । यद्यपि प्रकृति और पुरुष जुदा जुदा हैं-दोनोंमें बाह्य और आन्तरिक व्यवधान है, तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें किसी प्रकारका संयोग है ही नहीं। यदि एक स्फटिकके पात्रके पास गुलाबका फूल रक्खा जाय, तो वह फूलके रंगके समान गुलाबी रंगका हो जायगा और इसलिए कहा जायगा कि फूल और पात्रमें एक प्रकारका संयोग है। प्रकृति और पुरुषका संयोग भी इसी प्रकारका है । जिस तरह फूल और पात्रमें व्यवधान रहने पर भी पात्रका वर्ण विकृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522797
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages72
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size8 MB
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