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________________ २७२ बहुत कुछ संशोधन और परिवर्तन किया । इस वृत्तान्त से इस वाक्यकी वास्तविक सार्थकता मालूम होती है कि "उन्नतिका मार्ग विरोधके दाँतोंमेंसे होकर है ।" जब हम आगे बढ़े हैं, तब इस प्रकार के विघ्न और कष्ट आयेंगे ही। विघ्नोंसे घबड़ाना नहीं चाहिए । इस प्रकार के विरोधोको हमें बुरा भी न समझना चाहिए। क्योंकि इनसे हमारी जीवनी शक्तिका पता लगता है ओर काम करनेकी शक्तिको उत्तेजन मिलता है । ९. अनन्त जीवन या दीर्घायुष्यकी प्राप्ति । मथुराके पंचम वैद्य सम्मेलन में श्रीयुक्त वैद्य भोगीलाल त्रीकमला लका इस विषय पर एक पाण्डित्यपूर्ण लेख पढ़ा गया था । इस लेख में वैद्य - जीने कई विलक्षण और विचारणीय बातें कहीं हैं । आप कहते हैं कि मनुष्यों के लिए मृत्यु स्वाभाविक नहीं है । वैज्ञानिक विद्वानों का मत है कि यह अभी तक किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं हो सका है कि मृत्यु स्वाभाविक है । ऐसा एक भी कारण शरीरविज्ञान शास्त्र नहीं बतला सकता, जिससे प्रकृति के और स्वास्थ्य के नियमोंका अच्छी तरह पालन करने पर भी मनुष्यको मृत्युके अधीन होना ही पडे । विविध शारीरिक क्रियाओंके ऊपर योग्य उपायोंके द्वारा कमसे कम इतना अधिकार तो मनुष्य अवश्य प्राप्त कर सकता है कि जिससे अपने शरीरको दर्घि काल तक जीवित रख सके | मनुष्यका शरीर ऐसे यंत्र के समान नहीं है जिसका निरन्तर घर्षण होते रहने से क्षय हो जाता है । क्योंकि वह निरन्तर ही अपने आपको नवीन बनाता रहता है । हमें प्रतिदिन नया शरीर मिलता रहता है । प्रतिदिन ही हमारी जन्मतिथि है । क्योंकि हमारे शरीर की क्षय और नवीकरणकी क्रिया कभी नहीं रुकती । अर्थात् मलविसर्जन और नवीकरणकी क्रियाओं में सामञ्जस्य रखने से शरीरका सर्वथा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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