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________________ २६२ अभीतक इस यन्त्रका व्यवहार शुरू नहीं हुआ है। जब तक . यहाँवालोंको इसके दर्शन न हों, तब तक आर्यसमाजी विद्वानोंको चाहिए कि वे किसी वेदमन्त्रको खोजकर सिद्ध करें कि हमारे वैदिक ऋषि हजारों वर्ष पहले इस यन्त्रका व्यवहार करते थे और जैन पण्डितोंको अपनी शास्त्रसभाओंमें यह कहकर ही श्रोताओंकी जिज्ञासा चरितार्थ कर देना चाहिए कि भाई, जो यह जानता है कि पुद्गलोंमें अनन्त शक्तियाँ हैं, उसे ऐसे आविष्कारोंसे जराभी आश्चर्य नहीं - हो सकता। विविध-प्रसङ्ग। १ मनुष्यगणनाकी रिपोर्टमें जैनजातिकी संख्याका हास। पिछली १९११ की सेंससरिपोर्ट के पृष्ठ १२६ में जैनोंके विषयमें जो कुछ लिखा है उसका सारांश यह है:-"भारतके धर्मोमेंसे जैनधर्मके माननेवाले लोगोंकी संख्या १२॥ लाख है । संख्याके लिहाजसे जैनसमाज बहुत ही कम महत्त्वका है । भारतको छोड़कर इतर देशोंमें जैनधर्मके माननेवाले बहुत नहीं दिखते । राजपूताना, अजमेर और मारवाड प्रान्तमें इनकी संख्या २ लाख ५३ हजार और दूसरी रियासतों तथा अन्यान्य प्रान्तोंमें ( लाख १५ हजार है । अजमेर, मारवाड़ और बम्बई अहातेकी रियासतोंमें उनका प्रमाण शेष जनसंख्याके साथ सैकड़ा पीछे ८, राजपूतानेमें ३, बडोदामें २ और बम्बईमें १ पड़ता है। दूसरे स्थानोंमें उनकी बस्ती बहुत विरल है । ये लोग अधिकतर व्यापारी हैं। पूर्वभारतमें प्रायः सभी जैन व्यापारके ही उद्देश्यसे जाकर बसे हैं। दक्षिणमें जैनोंकी संख्या थोडी है और उनमें प्रायः खेतीसे जीविका निर्वाह करनेवाले हैं । सन् १८९१ से जैनोंकी सख्या धीरे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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