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________________ २५२ की: १४ वीं शताब्दीमें जारी किया है, वह जैन और बौद्धोंके इस मध्यम कालीन न्यायकी तलछटसे उत्पन्न हुई है। व्याकरण और कोशरचनाविभागमें शाकटायन पद्मनंदि और हेमचंद्रादिके ग्रंथ अपनी उपयोगिता और विद्वत्तापूर्ण संक्षिप्ततामें अद्वितीय हैं । छंदशास्त्रकी उन्नतिमें भी इनका स्थान बहुत ऊँचा है । प्राकृत भाषा अपने सम्पूर्ण मधुमय सौन्दर्यको लिये हुए जैनियोंकी रचनामें ही प्रगट की गई है; और यह बिलकुल सत्य है कि ब्राह्मण नाटकोंमें जो प्राकृत भाषाका व्यवहार, किया गया है उसके मूलकारण जैनी ही हैं जिन्होंने सबसे पहले अपने शास्त्रोंमें इस भाषाका प्रयोग किया है। और ऐतिहासिक संसारमें तो जैनसाहित्य शायद जगतके लिए सबसे अधिक कामकी वस्तु है। यह इतिहास लेखकों और पुरावृत्त विशारदोंके लिए अनुसन्धानकी विपुल सामग्री प्रदान करनेवाला है जैसा कि इसने पहले प्रदान की है और अब भी प्रदान कर रहा है। जैनियोंके बहुतसे प्रामाणिक ऐतिहासिक ग्रंथ भी हैं जैसा कि 'कुमारपालचरित' । ये ग्रंथ और वे उपाख्यान, जिन्हें भिन्न भिन्न सम्प्रदाय या 'गच्छों के जैनियोंने उन समयोंके बाबत जिनमें कि अनेक तीर्थकर और शिक्षक 'धर्मके आसन' या 'पट्ट' पर विराजमान थे और उनकी समकालीन घटनाओंके बाबत सुरक्षित रक्खा है, भारतीय इतिहासकी पुरानी बातोंको निश्चित करनेके लिए उसी प्रकारसे बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं, जिस प्रकार कि यूनानका पुराना इतिहास तय्यार करनेमें वहाँके मीनार कार्यकारी हुए थे । और भी अधिक, इन समयोंकी जाँच शिला आदिपर उत्कीर्ण लेखोंकी साक्षीसे हो चुकी है और ये उनके अनुरूप पाये गये हैं जैसा कि मथुरासे मिला हुआ ईसाकी पहली शताब्दीका जैनशिलालेख और रुद्रदमनका जूनागढ़वाला शिलालेख जो दूसरी शताब्दीका है, इत्यादि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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