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धमकी दे रहे हैं। सातवें रुपयोंके दो चार गुलामोंको फुसलाकर उनसे जैनधर्मकी प्रशंसा कराके आपको कृतकृत्य मान रहे हैं और आठवें दिगम्बर स्थानकवासी आदि सम्प्रदायोंको बुरा भला कह कर कलहका बीज बो रहे हैं। इस तरह कितने गिनाये जावें, एकसे एक बढ़कर काम कर रहे हैं और अपने मुनि साधु आदि नामोंको अन्वर्थ सिद्ध कर रहे हैं। अब पाठक सोच सकते हैं कि जैनधर्मके ऊँचे आदर्शसे हमारे साधु कितने नीचे आ पड़े हैं।
तेरापंथी दिगम्बरी भाइयोंके कन्धोंपर साधुओंका यह कष्टप्रद जूआँ नहीं है, इसलिए मेरे समान उन्हें भी प्रसन्न होना चाहिए था; परन्तु देखता हूँ कि उनका ऐसा ख्याल नहीं है और इसलिए वे एक दूसरी तरहके जूएँको कन्धोंपर धरनेका प्रारंभ कर चुके हैं । कई प्रतिष्ठा करानेवाले और कई अपनी प्रतिष्ठा बढ़ानेवाले पंडितोंने तो उनकी नकेल बहुत दिनोंसे अपने हाथमें ले ही रक्खी है और अब कई क्षुल्लक ऐलक ब्रह्मचारी आदि नामधारी महात्मा उनपर शासन करनेके लिए तैयार हो रहे हैं। तेरापंथी भाइयो, क्षुल्लक, ऐलक, ब्रह्मचारी बुरे नहीं-इनकी इस समय बहुत आवश्यकता है; परन्तु सावधान ! केवल नामसे ही मोहित होकर इन्हें अपने सिर न चढ़ा लेना; नहीं तो पीछे पिण्ड छुड़ाना मुश्किल हो जायगा ।
यहाँ पर यह कह देना मैं बहुत आवश्यक समझता हूँ कि वर्तमान साधुओंसे मेरी जो अरुचि है वह इसलिए नहीं है कि मैं साधुसम्प्रदायको ही बुरा समझता हूँ । नहीं, मैं धर्म, समाज और देशके कल्याणके लिए साधुसंघका होना बहुत ही आवश्यक समझता हूँ। मेरी समझमें जिस समाजमें ऐसे लोगोंका अस्तित्व नहीं है कि जिनका जीवन स्वयं उनके लिए नहीं है-दूसरोंके पारमार्थिक और ऐहिक
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