SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है-उसके सिद्धान्त बहुत ही उच्चश्रेणीके हैं, परन्तु गुरुओंके अभावसे उनका प्रचार नहीं हो सकता है। गृहस्थ लोग जैनधर्मका थोड़ा बहुत प्रचार बढ़ा सकते हैं परन्तु जिसको सच्चा या पूरा प्रचार कहते हैं वह बिना गुरुओंके नहीं हो सकता। इसके बाद जब मैं कुछ अधिक समझने लगा; जैनधर्मके दूसरे संप्रदायोंका हाल समाचारपत्रोंके द्वारा जानने लगा, तब मैं गुरुओंकी आवश्यकताको और भी अथिक अनुभव करने लगा। अब मुझे धार्मिक कार्योंके समान सामाजिक कार्योंके लिए भी गुरु आवश्यक जान पड़े। इस समय मुझे लेख लिखनेका शाक होगया था-दो चार छोटे मोटे लेख मैं प्रकाशित भी करा चुका था। मेरा साहस बढ़ गया था, इसलिए मैंने इस विषयमें भी एक लेख लिख डाला और एक जैनपत्रमें उसको प्रकाशित भी करा दिया। उसमें सबसे अधिक जोर इस बातपर दिया था कि जैसे बने तैसे गुरुपरम्पराको फिरसे जारी करना चाहिए। हमारी जो धार्मिक और सामाजिक अधोगति हुई है उसका कारण गुरुओंका ही अभाव है। गुरुओंका शासन न होनेसे हमारे आचारविचार उच्छंखल होगये हैं, धर्मके उपदेशोसे हम वंचित रहते हैं और सामाजिक कामोंमें निडर होकर मनमाना वर्ताव करते हैं। हमारी पंचायतियाँ अन्तःसारशून्य हो गई हैं। उनमें न्याय नहीं होता, क्योंकि स्वयं न्याय करनेवाले ही अन्यायाचरण करते हैं। इसके कुछ दिनों बाद मुझे मालूम हुआ कि दक्षिण तथा गुजरातमें भट्टारक लोग हैं और वे दिगम्बर सम्प्रदायके गुरु समझे जाते हैं। मैं जहाँका रहनेवाला हूँ, वहाँ केवल एक तेरापंथ आम्नायके ही माननेवाले हैं, इसलिए उस समय मेरा भट्टारकोंसे अपरिचिंत होना कोई आश्चर्यकी बात..नहीं । भट्टारकोंके माहात्म्यकी कुछ . कल्पित और सच्ची किंवदन्तियाँ मैंने उसी समय सुनीं। फिर क्या था, Jain Education International . For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy