SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१२ कभी अच्छा नहीं हो सकता । इस विपरीत व्यापारसे कभी भलाई नहीं हो सकती । कमसे कम भारतवर्षका जल वायु तो ऐसा अच्छा .है कि हमें इन सब उपकरणोंके चिर-दास बननेकी कोई जरूरत नहीं है । पहले भी कभी हम इनके दास नहीं थे; हम आवश्यकता पड़नेपर कभी इनको काममें भी लाते थे और कभी इन्हें खोल कर भी रख देते थे। हम जानते थे कि वेश भूषा (कपड़े लत्ते पहनना, साज श्रृंगार करना) एक नैमित्तिक वस्तु है-इससे अधिक इसमें और कोई महत्त्व नहीं है कि यह कभी कभी हमारे प्रयोजनको साध देता है, अर्थात् हमें शीतादिके कष्टसे बचा देता है । बस, इसका हम पर इतना ही स्वामित्व था। इसी कारण हम खुला शरीर रखनेमें लज्जित नहीं होते थे और दूसरोंका भी खुला शरीर देखकर अप्रसन्न न होते थे। इस विषयमें विधाताके प्रसादसे यूरोप निवासियोंकी अपेक्षा हमें विशेष सुविधा थी। हमने आवश्यकतानुसार लज्जाकी रक्षा भी की हैं और अनावश्यक अतिलजाके द्वारा अपनेको भारग्रस्त होनेसे भी बचाया है। ___ यह बात स्मरण रखना चाहिए कि अतिलज्जा लजाको नष्ट कर देती है । कारण, अतिलज्जा ही वास्तवमें लज्जाजनक है । इसके सिवा जब मनुष्य 'अति' का बन्धन बिलकुल ही छोड़ देता है अर्थात् प्रत्येक बातमें जियादती करने लगता है तब उसे और किसी तरहका विचार नहीं रहता । यह हम मानते हैं कि हमारे देशकी स्त्रियाँ अधिक कपडा नहीं पहनती हैं किन्तु वे (विलायती मेमोंके समान) जान बूझकर सचेष्ट भावसे छाती और पीठके आवरणका बारह आना हिस्सा खुला रखके पुरुषोंके सामने कभी नहीं जा सकती। अवश्य ही हम लज्जा नहीं करते हैं; परन्तु साथ ही लजापर इस तरहका आघात भी नहीं करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy