SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०५ जाति उपजातिकी संख्या बहुत ही कम हो गई है । एक उपजाति विवाहके लिए अपने ही भीतर सीमाबद्ध रहती है दूसरी उपजाति या जातिसे वह सम्बन्ध नहीं कर सकती और इससे बहुत स्थानोमें न तो योग्य वर मिल सकते हैं और न योग्य कन्यायें ही मिल सकती हैं । लाचार बेजोड या अयोग्य विवाहोंसे गृहस्थजीवन अतिशय दुःखपूर्ण बनाया जाता है । इसके सिवा बहुतसे वर-कन्याओंका रक्तसम्बन्ध अतिशय निकटका हो जाता है और इससे प्राचीन ऋषियोंकी आज्ञाका पालन नहीं हो सकता है। शरीरशास्त्रज्ञ विद्वानोंका सिद्धान्त है कि रक्तसम्बन्ध जितना ही दूरका होगा उतना ही अच्छा होगा । निकटका रक्तसम्बन्ध वंशवृद्धिका बहुत बड़ा घातक है। इस विपत्तिसे रद्धार पानेके लिए आवश्यक है कि उपजातियों और जातियोंका विवाहसम्बन्ध जारी कर दिया जाय । इसके द्वारा समाजका बहुत बडा उपकार होगा। * आवरण। मनुप्यके पदतल ( तलुवे ) ऐसी खूबीसे बनाये गये थे कि खडे होकर पृथ्वीपर चलनेके लिए इससे अच्छी व्यवस्था और हो नहीं सकती थी। परन्तु जिस दिनसे जूतोंका पहनना शुरू हुआ उस दिनसे पदतलोंको धूल और मिट्टीसे बचानेकी चेष्टाने उनका प्रयोजन ही मिट्टी कर दिया। जिस गरजसे वे बनाये गये थे, उसे ही लोग भूल गये । इतने दिनोंतक पदतल सहज ही हमारा भार वहन करते थे, परन्तु अब पदतलोंका भार स्वयं हम ही वहन करने लगे हैं। क्योंकि इस समय यदि हमें खाली पैर बिना जूतोंके चलना पड़ता है * एक बंगला लेखका परिवर्तित अनुवाद । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy