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________________ ३०३ लक मिल जावें, इन सब बातोंके लिए अपनी शक्ति भर प्रयत्न करें, सदाचारी सुयोग्य कार्यकर्ता ढूँढ दें, संस्था-संचालन-सम्बन्धी अच्छी सूचनायें दें और यदि बन सके तो संस्थाओंके लिए स्वयं अपना जीवन अर्पण कर दें । सेठजीको भी चाहिए कि वे इस ओर पूरा पूरा ध्यान दें। क्योंकि उनका यह महान् दान तब ही फलीभूत होगा जब उक्त संस्थायें वास्तविक संस्थाओंका रूप धारण करेंगी। हमारी छोटीसी समझमें संस्थाओंके खोलनेकी अपेक्षा उनका अच्छी तरहसे चला देना बहुत ही कठिन है और जैनसमाजमें तो यह कार्य और भी अधिक कठिन है। क्योंकि उसमें सुयोग्य संचालकोंकी बहुत बड़ी कमी है। अपनी इन संस्थाओंकी देखरेखके लिए सेठजीको स्वयं भी प्रतिदिन कमसे कम दो घण्टेका समय देनेका निश्चय कर रखना चाहिए । संस्थाओंके सम्बन्धमें नीचे लिखी सूचनाओंपर ध्यान देनेकी आवश्यकता है:. १ जैनियोंके इस समय कई संस्कृत विद्यालय हैं, इसलिए इस संस्कृत विद्यालयमें उनसे कुछ विशेषता होनी चाहिए । एक तो यह कि इसमें उच्च श्रेणीका संस्कृत साहित्य पढ़ाया जाय और वह पुरानी नहीं किन्तु नवीन शिक्षापद्धतिसे पढ़ाया जाय । अभी जिन पाठशालोंमें संस्कृतकी शिक्षा दी जाती है वहाँ पहले संस्कृतका व्याकरण और फिर संस्कृत भाषा पढाई जाती है। परन्तु इस विद्यालयमें पहले संस्कृत भाषा पढ़ाई जाय और पीछे उसका व्याकरण । स्वाभाविक नियम भी यही है। मनुष्य पहले भाषा सीखता है और पीछे उसके नियम । भाषाके बन चुकने पर व्याकरण बनता है । सारी दुनिया में इसी क्रमसे शिक्षा दी जाती है; सब जगह भाषा आजाने पर ही व्याकरण सिखलाया जाता है। फिर संस्कृतके लिए ही यह अनोखा ढंग क्यों ? अँगरेजी भी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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