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________________ २९८ जौहरी पाण्डुके यहाँ नौकर था; मेरा नाम महादत्त था। एक बार उसने मेरे साथ अतिशय क्रूरताका वर्ताव किया, इसलिए मैं उसकी नौकरी छोड़कर चल दिया और लुटेरोंके दलमें मिलकर उनका सरदार बन गया । कुछ समय पीछे मैंने अपने गुप्तचरोंके द्वारा सुना कि पाण्डु इन जंगलोंमेसे एक राजाके यहाँ बहुतसा धन लेकर जानेवाला है । बस, मैंने उसपर आक्रमण किया और उसका सारा माल लूट लिया । अब आप कृपा करके उसके पास जाइए और मेरी ओरसे कहिए कि तुमने जो मुझपर अत्याचार किया था उसका वैर मैंने अन्तःकरणसे सर्वथा दूर कर दिया है और मैं अपने उस अपराधकी क्षमा माँगता हूँ जो मैंने तुमपर डाँका डालके किया था । जिस समय मैं उसके यहाँ नौकरी करता था, उस समय उसका हृदय पत्थरके समान कठोर था और इस लिए मैं भी उसकी नकल करके उसीके जैसा हो गया था । वह समझता था कि जगतमें स्वार्थको ही विजय मिलता है; परन्तु मैंने सुना है कि अब वह इतना परोपकारी और परार्थतत्पर होगया है कि उसे लोग भलाई और न्यायका अवतार मानते हैं ! उसने अब ऐसा अपूर्व धन संग्रह किया है कि न तो उसको कोई चुरा सकता है और न किसी तरह नष्ट कर सकता है । अभी तक मेरा हृदय बुरेसे बुरे कामोंमें एकरंग एकजीव हो रहा था; परन्तु अब मैं इस अन्धकारमें नहीं रहना चाहता । मेरे विचार बिलकुल बदल गये हैं । बुरी वासनाओंको अब मैं अपने हृदयसे धोकर साफ़ कर रहा हूँ। मेरे मरनेमें अभी जो थोडीसी घड़ियाँ बाकी हैं, उनमें मैं अपनी शुभेच्छाओंको बढ़ाऊँगा जिससे मर जानेके बाद भी मेरे मनमें वे इच्छायें जारी रहें । तब तक आप पाण्डुसे जाकर कह दीजिए कि तुम्हारा वह कीमती मुकुट जो तुमने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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