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________________ २९३ इस अन्तकी घडीमें अपना सुधार कर ले । इस कमण्डलुमेंसे थोडासा पानी पी ले और मुझे इन घावोंका इलाज करने दे। शायद मैं तेरे इस जीवनदीपकको बुझनेसे बचा सकूँ।। लुटेरेकी शक्ति क्षीण हो गई थी। उसने शक्ति भर प्रयत्न करके कहा-मैंने कल एक साधुको अपने साथियों सहित बहुत बुरी तरह मारा था । क्या तुम वही हो ? और क्या तुम मेरे उस अन्यायका बदला इस समय मेरी सहायता करनेके रूपमें दोगे? यह जल तुम क्यों लाये हो ? पर अब तुम्हारा यह सब प्रयत्न व्यर्थ है। मेरे भाई, इस जलसे मेरी प्यास तो शायद मिट जायगी परन्तु मेरे जीवनकी अब आशा नहीं । उन कुत्तोंने मुझे इतना घायल कर दिया है कि मैं निश्चयसे मर जाऊँगा। अरे कृतनियो, मेरे सिखलाये हुए दाव पेच आज तुमने मेरे पर ही आजमाये ! . श्रमण-" जैसा बोता है वैसा ही लुनता है ।" यह अक्षर अक्षर सत्य है । तूने अपने साथियोंको लूट मार सिखलाई थी, इसलिए आज उसी लूट मारकी विद्याको उन्होंने तुझपर आजमायी। यदि तूने उन्हें दया सिखलाई होती तो आज वे भी तुझपर दया करते। ऊपरको फेंकी हुई गेंद जिस तरह लौटकर फैंकनेवाले पर ही आती है उसी तरह दूसरोंके लिए किये हुए बुरे भले कर्म, करनेवालेके ही ऊपर आ पड़ते हैं। - लुटेरा-इसमें जरा भी असत्य नहीं। मुझे आपकी प्रत्येक बात ठीक मालूम होती है । मेरी जो दुर्गति हुई वह उचित ही हुई। परन्तु महाराज मेरे दुःखोंका अन्त अभी कहाँ आ सकता है ? मैने अगणित • अन्याय और अत्याचार किये हैं। उन सबका फल मुझे आगे पीछे कभी न कभी अवश्य भोगना पड़ेगा। आप कृपा करके मुझे कोई ऐसा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522794
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size14 MB
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