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पड़ता है कि "नर जो पै करनी करे तो नारायण है जाय ।” प्रतिकूल दशामें भी मनुष्य अपनी जाति, समाज और देशकी कैंसी और कितनी सेवा कर सकता है, यह बात इस चरितसे सीखने योग्य है । यद्यपि हमारे देशमें अमेरिकाके समान दासत्व नहीं है तथापि वर्त - मान समयमें, अस्पृश्य जातिके पाँच करोड़से अधिक मनुष्य सामाजिक दासत्वका कठिन दुःख भोग रहे हैं। क्या हमारे यहाँ, वाशिंगटनके समान, इन लोगोंका उद्धार करने के लिए कभी कोई महात्मा उत्पन्न होगा ? क्या इस देशकी शिक्षापद्धति में शारीरिक श्रमकी ओर ध्यान देकर कभी सुधार किया जायगा ? जिन लोगोंने शिक्षाद्वारा अपने समाजकी सेवा करनेका निश्चय किया है क्या वे लोग उन तत्त्वोंपर उचित ध्यान देंगे जिनके आधारपर टस्केजीकी संस्था काम कर रही है ?*
कन्या - निर्वाचन ।
शायद ही कोई अभागा ऐसा हो, जिसे अपने जीवनमें कमसे कम एक बार किसी न किसीकी कन्याको देखनेके लिए न जाना पड़े । किन्तु वह क्या देखता है ? कन्याका रंग गोरा है या काला, आँखे छोटी हैं या बड़ीं, नाक ऊँची है या बैठी इत्यादि । अधिक हुआ तो कोई यह भी पूछ लेता है कि कन्या पढ़ना लिखना जानती है या नहीं ? इसके उत्तर में कन्याका पिता और कुछ नहीं तो यह अवश्य कह देता है कि
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लड़की घरका काम काज करना सीखी है । इसके बाद ही कन्या पसन्द हो जाने पर विवाहकी तैयारिया होने लगती हैं।
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* फरवरीकी 'सरस्वती' के लेखका सार ।
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