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तको यशरूपी लक्ष्मी सहित प्राप्त किया। यह महाशास्त्र-जो कि भर्हत् भगवानके शासनके समान है-सर्वसाधारणके हितार्थ संपूर्ण, सुगम, और संक्षिप्त रीतिसे लिखा गया है । यह सरल टीका जो इसी ग्रंथकी ( अमोघवृत्ति नामक ) वृहद् टीका है-के आधारपर रची गई है और व्याकरणके सर्व गुणोंसे अलंकृत है-यक्षवर्माकृत है"।
५-इसके उपरान्त अमरकोश नामक प्राचीन कोशके रचयिता एक जैन कोशकार अमरसिंह थे जो कि महाविद्वान् तथा संस्कृत साहित्यके अष्ट-जगद्विख्यात-वैयाकरणोंमेंसे थे । सर्व टीकाकारोंने इस, अमर ग्रंथका जैनकृत होनेपर भी सदृश मान किया है। क्रमशः ब्राह्मणोंके समान जैनियोंने भी उन लोगोंकी भाषा ग्रहण कर ली जिनके मध्यमें उन्होंने निवास किया; किन्तु कई शताब्दि होजानेपर भी वह आदर और प्रेम, जो उनको अपनी मातृ-भाषा संस्कृतसे था, नहीं घटा । क्योंक उस अपूर्व विद्वत्तासे जो उन्होंने संस्कृतसाहित्यमें आगामी कालमें प्राप्त की, यह स्पष्ट है कि संस्कृतके अर्थ उनका आवेश अपरमित था। निम्नलिखित ग्रंथ जैनग्रंथकर्ताओंके रचे हुए हैं। व्याकरणके ग्रंथ-न्यास (प्रभाचंद्रकृत), कातंत्रव्याकरण अपरनाम कौमार व्याकरण (शर्ववर्मकृत), शब्दानुशासन ( हेमचंद्रकृत), प्राकृत-व्याकरण (त्रिविक्रमकृत), रूपसिद्धि ( दयापाल मुनिकृत), शब्दार्णव (पूज्यपादस्वामीकृत ), इत्यादि; कोश-त्रिकांडशेष, नाममाला (धनञ्जयकृत), अभिधानचिंतामणि, अनेकार्थसंग्रह और हेमचन्द्रकृत अन्य कोश; पुराण-महापुराण, पद्मपुराण, पांडवपुराण, हरिवंशपुराण (प्राकृतमें),
१ अमरसिंह बौद्धसम्प्रदायके थे ऐसा प्रसिद्ध है। इनके जैन होनेके विषमें अभीतक कोई सन्तोषयोग्य प्रमाण नहीं मिला है। -सम्पादक।
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