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________________ विविध प्रसंग। १. संस्कृत भाषाके प्रचारकी आवश्यकता। गृहस्थ नामक बंगला पत्रके अगहनके अंकमें श्रीयुक्त विधुशेखर शास्त्रीका एक बहुत ही महत्वका लेख प्रकाशित हुआ है। उसमें उन्होंने संस्कृत भाषाके सम्बंधमें लिखते हुए कहा है कि-" संस्कृत साहित्यने सारे संसारमें अपनी महिमा स्थापित की है। संस्कृतके साथ भारतीय भाषाओंका बहुत ही निकट सम्बन्ध है । संस्कृतसे हमारी भाषाओंने बहुत कुछ ग्रहण किया है और आगे भी उन्हें बहुत कुछ ग्रहण करना होगा । उसे छोड देनेसे इनकी परिपुष्टि होना असंभव है। हिन्दी भाषाके अभ्युदयके लिए संस्कृतका प्रचार , बहुत ही आवश्यक है। जिले जिलेमें संस्कृतका बहुत प्रचार करनेके लिए हम सबको तन मन धनसे उद्योग करना चाहिए। इसके साथ हम और भी दो भाषाओंका प्रचार कर सकते हैं और करना भी चाहिए । पालि और प्राकृत साहित्यको हम किसी भी तरह परित्याग नहीं कर सकते। क्योंकि भारतके मध्य युगके इतिहासको सम्पूर्ण करनेके लिये पालि और प्राकृत साहित्य ही समर्थ है । भारतके मध्ययुगके धर्म और समाजमें तीन धाराओंका आविर्भाव हुआ था, एक ओर बौद्ध, एक ओर जैन, और मध्यमें ब्राह्मणधारा । पालिसाहित्यकी तो थोड़ी बहुत आलोचना हुई भी है, परन्तु प्राकृत निबद्ध जैनसाहित्य अब भी हमारी आलोचनाके मार्गमें उपस्थित नहीं हुआ है । संस्कृतके साथ पालि और प्राकृतका. इतना घनिष्ट सम्बन्ध है कि उसके साथ इनकी बिना परिश्रमके ही अच्छी आलोचना हो सकती है।" शिक्षाप्रचारकोंको शास्त्रीजीके उक्त कथनपर ध्यान देना चाहिए। Jain Educatio international For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.522792
Book TitleJain Hiteshi 1913 Ank 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1913
Total Pages86
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jain Hiteshi, & India
File Size9 MB
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